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अन्वयार्थ :[परमसमणेहिं] परम श्रमणों के द्वारा[छप्पयारं] छह प्रकार का [आवस्सं] आवश्यक[छक्कालेहि ] छह काल से [खल] निश्चय पूर्वक [रयणत्तय साहणटुं] रत्नत्रय को साधने के लिए [अवस्सं] अवश्य [साहेदव्वं] साधना चाहिए।
भावार्थ : हे श्रमण! श्रम करना तुम्हारा धन है। श्रमण को कोई शारीरिक श्रम की आवश्यकता नहीं है किन्तु मानसिक श्रम की विशेष आवश्यकता है। आहार-विहार का शारीरिक श्रम आवश्यक है। उससे भी ज्यादा आवश्यक और नियामक मानसिक श्रम है। मानसिक श्रम कैसे करना? तो आचार्यों ने छह आवश्यक कार्यों में मन लगाने को कहा है। जिस समय पर जो आवश्यक करना है उसे उसी समय पर करना आवश्यकापरिहीण भावना है। साधु को तो मन स्थिर रखना है तन भले ही गतिमान् हो। गृहस्थ का मन स्थिर रहता नहीं है शरीर भले ही घरदुकान में विद्यमान हो। इन आवश्यकों का पालन वही श्रमण कर सकता है जिसका मन अन्य किसी के वश में न हो। जो किसी के वश में न हो उसे अवश कहते हैं। इन अवशों की क्रिया आवश्यक क्रिया कहलाती है कारणवश अन्य कार्यों में तो व्यस्त हो गए और आवश्यक को टाल दिया तो वह श्रमण स्ववशी नहीं है। वह श्रमण अन्य के वश में है, यह आचार्यों ने कहा है।
समता, स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक श्रमणों को करणीय हैं। प्रतिदिन पुनः पुनः इन आवश्यकों में मन लगाते हुए विशुद्धि परिणाम को बढ़ाना। यह आवश्यक कर्म निर्जरा के साधन हैं। रोज-रोज करने पर उत्साह वृद्धिंगत होना ही मन का एकाग्रचित्त होना है। इन आवश्यकों से होने वाला श्रम ही श्रमण का श्रामण्य है। जो श्रमण इन आवश्यकों को नहीं करता वह द्रव्यलिङ्गी भी नहीं है। वह श्रमण की परिधि से बाहर है। द्रव्यलिङ्गी श्रमण होना भी श्रम साध्य है। जब आवश्यक तो करे और भावों में छठवाँ-सप्तम गुणस्थान न हो तो वह द्रव्यलिङ्गी कहलावे। किन्तु जो आवश्यक करे ही नहीं तो वह द्रव्यलिङ्गी श्रमण भी नहीं है। वह तो निरा नग्न पशु है। नग्नता के बल पर अपना जीवन चला रहा है। श्रमण को पहचानने के लिए भावलिङ्ग की नहीं द्रव्यलिङ्ग की आवश्यकता है। भावलिङ्ग तो किसी के द्वारा नहीं देखा जा सकता है। वह तो प्रत्यक्ष ज्ञानियों का विषय है। इसलिए भावलिङ्गी कौन है और कौन नहीं है? यह हमारे ज्ञान का विषय नहीं है। यह तो गुणस्थान के बल पर जाना जाता है। गुणस्थान किसी को भी न दिखता है और न अनुमान का विषय बनता है। दिखती तो मात्र बाह्य क्रियाएँ हैं। बाह्य क्रियाओं के बिना भीतर का गुणस्थान नहीं बनता है। इसलिए आत्मन् ! आज भावलिङ्गी श्रमण नहीं होते हैं, यह तुम कैसे कह सकते हो? क्या तुम ही सर्वज्ञ हो या प्रत्यक्षज्ञानी हो? ध्यान रखो! सर्वथा अभाव किसी भी क्षेत्र, काल में नहीं है किन्तु सदभाव विरल अवश्य है।
श्रावक हो या श्रमण, साधु हो या आचार्य कोई भी श्रमण के भावलिङ्ग को देखकर नमोऽस्तु आदि समाचार नहीं करते हैं किन्तु द्रव्यलिङ्ग को देखकर ही करते हैं। जहाँ इन छह आवश्यकों का पालन होता है और जो मोक्ष की अभिलाषा से आरम्भ और परिग्रह से विरत है वह श्रमण वन्दनीय है। जब श्रमण भी श्रमण की वन्दना भावलिङ्ग देखकर नहीं कर सकता है तो फिर श्रावक की क्या बात? इसलिए आज भावलिङ्गी श्रमण नहीं होते, इसलिए हम उनकी वन्दना नहीं करते हैं यह कहना जिनवाणी के विरुद्ध है। इस प्रकार की भावना मिथ्यात्व वर्धिनी है। गुरुजनों की यह अवमानना कषायदायिनी है।
भोले आत्मन् ! तुम जानते ही नहीं हो कि द्रव्यलिङ्गी किन्हें कहते हैं और भावलिङ्गी किन्हें कहते हैं? फिर