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१४. आवस्स्यापरिहीण भावणा
आवासएसु हाणी हाणी धम्मस्स अप्पणो कहिदा। तेण कदं पडिपुण्णं आवस्सं धम्मवसिगेहिं॥ १॥
श्रमण वही जो षट् आवश्यक पाल रहा है निज रुचि से धर्म क्रिया के वशीभूत है मन-वच-तन त्रय की शुचि से। आवश्यक में हानी करना धर्म हानि जो जान रहा उसके द्वारा ही आवश्यक पूर्ण हुए श्रुतगान रहा॥१॥
अन्वयार्थ : [आवासएस ] आवश्यकों में [हाणी] हानि [ अप्पणो धम्मस्स] अपने धर्म की [हाणी] हानि [कहिदा] कही है। [तेण] इसलिए [धम्मवसिगेहिं] धर्म के वशीभूत जीवों के द्वारा [आवस्सं] आवश्यक को [ पडिपुण्णं] परिपूर्ण [ कदं] किया गया है।
भावार्थ : हे धर्मपथानुगामिन् ! भगवान् सर्वज्ञ ने श्रमण और श्रावक को प्रतिदिन करने योग्य कार्य दिये हैं। इन कार्यों को करने से ही श्रमण या श्रावक की धर्म में प्रवृत्ति व्यवस्थित बनी रहती है।
श्रावकबन्धो! गृहस्थ होकर भी धर्म किया जाता है। परिवार के बीच भी आवश्यक कर्तव्यों की पूर्ति करना सीखो। जैसे प्रतिदिन स्नान, भोजन आदि नित्यकर्म किए जाते हैं उसी तरह प्रतिदिन के धर्मकर्म भगवान् ने कहे हैं।
धर्मप्रियात्मन्! तुम्हारी जिम्मेदारी मुनियों से भी ज्यादा है। आचार्य और उपाध्याय से भी ज्यादा बड़ा उत्तरादायित्व तुम्हारे ऊपर है। तुम अपने को धर्म विहीन समझकर बहुत बड़ी भूल कर रहे हो। मुनियों को देखकर कभी ऐसा मत सोचना कि हम तो कुछ भी नहीं कर सकते हैं। हमारा धर्म तो कुछ भी नहीं है। जिनवाणी ने श्रमणों को उनका धर्म करना सिखाया है तो श्रावकों को भी अपना धर्म पालन करने की आज्ञा दी है। तुम श्रावक भी उसी जिनवाणी के पूत हो जिसके श्रमण हैं । तुम्हारे द्वारा ही धर्म की स्थिति है।
इस कलिकाल में श्रावक का भी उतना ही महत्त्व है कि जितना कि श्रमणों का है। धर्म रथ के दोनों पहिए हैं। एक के बिना दूसरा पहिया भी चल नहीं पाता है। धर्म रत्नत्रय है। रत्नत्रय मुनियों के पास होता है। उन मुनियों का धर्म तुम श्रावकों के कारण से पल रहा है। श्रमण को पालने वाला श्रावक ही है। श्रमणों का जीवन आहार के बिना नहीं चल सकता है। वह आहार कौन देगा? यदि आहार न मिले तो श्रमण मर जाए। श्रमण गया तो रत्नत्रय धर्म गया । इसलिए रत्नत्रय का पालन कौन करे? बिना श्रावक के वह नहीं हो सकता है। कलिकाल के श्रमणों का मन धर्म में बिना आहार के नहीं लग पाता है। इस पंचम काल में श्रमण जंगल में नहीं रहते हैं। श्रावक से निरपेक्ष होकर श्रमण की चर्या पल ही नहीं सकती है। जिनालय में या किसी धर्मशाला आदि में रहकर भी जो रत्नत्रय का पालन किया जाता है वह जिनालय और धर्मशाला भी कौन बनाता है? श्रावक ही बनाता है। मुनिराज तो क्या भगवान् की भी स्थिति श्रावक से ही है। श्रावक न हो तो कौन मन्दिर बनाएगा? मन्दिर नहीं होंगे तो भगवान् कहाँ होंगे?