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पूज्य बने हैं, पूज्य बनाते प्रवचन मुनि मन हरते हैं॥८॥
अन्वयार्थ : [जे सूरिणो] जो आचार्य [पवयणस्स] प्रवचन की [विसोहिजुत्ता] विशुद्धि से सहित हैं [जिणिंद कहिदत्थसुदस्स] जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे हुए अर्थ श्रुत की [भत्तिं] भक्ति को [ पप्पा ] प्राप्त करके [इह ] इस लोक में [सिद्धंतसत्थं ] सिद्धान्त शास्त्र का ज्ञान [भव्वजणं] भव्यजन को [ दिसंति ] देते हैं [तं] उस [ लोग पुज्ज सुदयं ] लोक पूज्य श्रुत को [ हिदये हृदय में [धरेमि ] धारण करता हूँ।
भावार्थ : हे कल्याणेच्छो! प्रवचन की पूज्यता आचार्य परमेष्ठी से है। आचार्य परमेष्ठी इस प्रवचन की भक्ति से भरे हुए विशुद्धियुक्त होते हैं। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहा हुआ अर्थश्रुत गणधर परमेष्ठी ही अवधारित करते हैं । आचार्य परमेष्ठी भगवान के उस अर्थश्रत की भक्ति गणधर परमेष्ठी के ग्रन्थ(शब्द) श्रत को पढकर करते हैं। अर्थश्रत के महत्व का आंकलन आचार्य परमेष्ठी अपने भावों से करते हैं। अनेक भाषा रूप,सभी जीवों को समझ में आने वाला, एक साथ वस्तु तत्त्व को कहने में समर्थ दिव्य ध्वनि का गंभीर प्रवाह ही अर्थश्रुत कहलाता है। गणधर परमेष्ठी के बिना उस अर्थश्रुत को सही-सही पूर्ण समझने में कोई भी समर्थ नहीं होता है।
अर्थश्रुत की गम्भीरता सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ने से ही ज्ञात होती है। वर्तमान में उपलब्ध सिद्धान्त ग्रन्थों को जो भव्य जीवों को सिखाते हैं, सिद्धान्त के पठन-पाठन में शिष्य की रुचि बढ़ाते हैं और उस शिष्य को सिद्धान्त के पढ़ने से प्रतिसमय असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा का लोभ बढ़ाते हैं उन आचार्यों को और उस प्रवचन को मैं हृदय में धारण करता हूँ। इसी प्रवचन की आराधना से आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी लोक पूज्य बन जाते हैं। ऐसे केवली प्रणीत प्रवचन(शास्त्र) की भक्ति को मैं हृदय से करता हूँ।
हे जिनवाणी! तेरी भक्ति से मुझे बोधि लाभ हो, मेरा समाधिमरण हो, मेरा सुगति में गमन हो और जिनेन्द्र भगवान् के गुणों की सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो, यही भावना है।