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शरीर की चिकित्सा में नहीं राग की चिकित्सा में लग जाता है। एक श्रावक भी बारह व्रतों का अन्तिम फल सल्लेखना मरण से पाकर यशलोक को प्राप्त कर लेता है। अरे मुमुक्ष! तूने कौन से यशलोक का पाताल पा लिया!
संसार, शरीर और भोग के स्वरूप को यदि सही ढंग से समझ लो तो समयसार का बखान करने की जरूरत ही नहीं है। जिनवाणी से इन संसार आदि तीनों का स्वरूप समझ लेना ही सम्यग्ज्ञान है।
एक बार आचार्य महाराज के पास ऐसा ही समयसार की रट लगाने वाला एक विद्वान आया। कहने लगा महाराज आप से कुछ पूछना चाहता हूँ। वैसे तो मैंने समयसार पूरा पढ़ा है। एक सौ आठ बार मैं समयसार पढ़ चुका हूँ। आचार्य महाराज ने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा भैया! मैं कुछ ज्यादा नहीं जानता हूँ। मैंने तो एक ही बार समयसार पढ़ा था। एक बार समयसार पढ़ने से मेरा यह स्वरूप हो गया। जब १०८ बार पढ़ लूँगा तो न जाने क्या होगा?
उस मुमुक्षु को समझते देर न लगी कि वास्तव में समयसार का फल तो यही है और वह बिना कुछ पूछे मुँह नीचे किए हुए चला गया।
जिस प्रवचन भक्ति से ऐसी परिणति हो जाए, ऐसा वीतराग भाव प्रकट हो जाए उस प्रवचन को मैं नमस्कार करता हूँ।
इस प्रवचन भक्ति का कार्य और कहते हैं
भेदण्णाण-मुहेण हु सुद्धप्परायविभेदमावण्णो। दाएज जम्मसारं तं पवयणं सया पणमामि॥७॥
शुद्धातम ही निज स्वभाव है, राग-विभाव बना दुखकार भेदज्ञान के बल से भासे पृथक-पृथक सब का आकार। मनुज जन्म का सार मुक्ति है, मुक्ति सुखों को पाने हेतु नमन करूँ मैं जिनवाणी को मुक्ति का जो है सेतु॥७॥
अन्वयार्थ : [भेदण्णाणमुहेण] भेदज्ञान की मुख्यता से [हु] निश्चित ही जो [ सुद्धप्परायविभेदमावण्णो] शुद्ध आत्मा और राग के विशेष भेद को प्राप्त होता है [जम्मसारं] और जो जन्म के सार को [ दाएज ] देवे [तं] उस [पवयणं ] प्रवचन को [ सया] सदा [ पणमामि ] प्रणाम करता हूँ।
भावार्थ : हे आत्मन् ! मनुष्य जन्म को प्राप्त करने का सार क्या है? यह जान लो। सार उत्कृष्ट फल कहलाता है। मनुष्य जन्म पाने का उत्कृष्ट फल तो भेद विज्ञान को उपलब्ध हो जाना है। यह भेद विज्ञान श्रद्धान, ज्ञान और आचरण के फल से तीन प्रकार का होता है। जिनवाणी की कृपा से पहले संसार, शरीर, भोग को भली प्रकार समझकर जब