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का उदय हो रहा है। संक्लेश रूप परिणामों से उनके तीन अशुभ लेश्याओं की वृद्धि हो रही है। जो मन्त्री आदि प्रतिकूल हो गए हैं उनमें हिंसा आदि सब प्रकार के निग्रहों का चिंतवन करते हुए वे संरक्षणानन्द नामक रौद्र ध्यान में प्रविष्ट हो रहे हैं। यदि अब आगे अन्तर्मुहूर्त तक उनकी ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरक आयु का बन्ध करने के योग्य हो जाएँगे।
इसलिए हे श्रेणिक! तू शीघ्र जाकर उन्हें समझा दे और कह दे कि हे साधो ! शीघ्र ही यह अशुभ ध्यान छोड़ो, क्रोध रूपी अग्नि को शान्त करो, मोह के जाल को दूर करो, मोक्ष का कारणभूत जो संयम तुमने छोड़ रखा है उसे फिर से ग्रहण करो, यह स्त्री, पुत्र तथा भाई आदि का सम्बन्ध अमनोज्ञ है तथा संसार को बढ़ाने वाला है। इत्यादि युक्तिपूर्ण वचनों से तू उनका स्थितीकरण कर। तेरे उपदेश से वह पुनः स्वरूप में स्थित होकर शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्म रूपी सघन अटवी को भस्म कर देंगे और नव केवल लब्धियों से देदीप्यमान शुद्ध स्वभाव के धारक हो जाएंगे। गणधर महाराज के वचन सुनकर राजा श्रेणिक शीघ्र ही उन मुनि के पास गये और उनके बताए हुए मार्ग से उन्हें प्रसन्न कर आये। मुनिराज ने भी कषाय के भय से उत्पन्न होने वाली शान्ति से उत्पन्न होने वाली सामग्री प्राप्त कर द्वितीय शुक्ल ध्यान के द्वारा केवलज्ञान उत्पन्न कर लिया।
देखो! आत्मन् ! इस कथा से कितने सारे निष्कर्ष निकलते हैं।
गणधर परमेष्ठी ने मुनिराज की दोनों प्रकार की परिणति की सम्भावना दिखाई । यदि कुछ निश्चित ही होता तो ऐसे सम्भावित वाक्य गणधर देव के संभव नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा कि यदि अन्तर्मुहूर्त तक उन मुनि की ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरकाय का बन्ध कर लेंगे।
भव्यात्मन् ! विचार करो, कहाँ? नरकायु का बंध और कहाँ केवलज्ञान? कहाँ अपार संसार और कहाँ अनन्त मोक्ष? यह भी विचार करो कि नियतवाद की स्थिति में स्थितीकरण भी कैसे होगा? कौन किस को सम्बोधित करेगा? कौन किसके परिणामों की संभाल करेगा? सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में वात्सल्य, उपगृहन, स्थितिकरण का कोई उपयोग नहीं रहेगा।
हे मोक्षपथगामिन् ! और विचार करो कि जब किसी साधक की सल्लेखना होती है तो उसकी सेवा के लिए अडतालीस मुनिराज लग जाते हैं। समाधिपूर्वक मरण करने से ही आत्मा का अनन्त संसार सूख जाता है। आचार्य परमेष्ठी का बहुत बड़ा उत्तरादायित्व पूर्ण होता है। सल्लेखना के समय उस साधक के परिणामों को संभालो। उसके भीतर से शल्य, निदान और छल के भाव जैसे हो सके तैसे दूर करो। कितना बड़ा उपक्रम है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने तो इस समाधिव्रत को श्रावक के बारह व्रतों में गिना है। उन्होंने स्वयं समाधिपूर्वक मरण किया था । 'जोजो देखी वीतराग ने सो-सो होसी वीरा रे' की रट लगाकर कुछ लोगों ने जीवन पर्यन्त सर्वज्ञता का बखान किया
और अन्त में इतना भी साहस नहीं किया कि स्वयं देह की परिणति को देखते रहते और विचार करते कि देह का स्वरूप ऐसा है, 'जो-जो देखी वीतराग ने'।
अरे मुमुक्ष! वीतराग की आँखों में अपनी परिणति देखने वाला देह राग को भूल जाता है। वीतराग की भक्ति का इतना फल होता है कि अन्त समय में उसे वीतराग भाव ही याद आता है। रागियों को अपने से दूर रखता है।