________________
यह उपसर्ग तीर्थंकर और सामान्य आत्मा दोनों पर होते हैं। भगवान पार्श्वनाथ तीर्थंकर उपसर्ग केवली हैं। देशभूषण और कुलभूषण मुनिराज सामान्य उपसर्ग केवली हुए हैं।
५. अन्तःकृत केवली- जो मुनि अवस्था में ऐसा दारुण उपसर्ग सहनकर केवलज्ञानी होते हैं कि उनका शरीर उस उपसर्ग से प्रायः छिन्न-भिन्न हो जाता है और जो अन्तर्मुहूर्त में ही मोक्ष प्राप्त कर जाते हैं उन आत्माओं को अन्त:कृत केवली कहते हैं। जैसे युधिष्ठर आदि तीन पाण्डव।
६.समुद्घातगत केवली- जो केवलज्ञान प्राप्त करके समुद्घात करके मोक्ष जाते हैं उन्हें समुद्घातगत केवली कहते हैं। समुद्घात एक ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें आत्म प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और आठवें समय में शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। आयु कर्म के बराबर अन्य कर्मों की स्थिति को करने के लिए केवली भगवान् समुद्घात करते हैं। समुद्घात करने का सभी अरिहन्तों का नियम नहीं है।
७. अनुबद्ध केवली- जब एक केवली भगवान् को मोक्ष हो जाए तो उसी दिन किसी मुनिराज को केवलज्ञान हो जाए, तो वह अनुबद्ध केवली कहलाते हैं क्योंकि केवली भगवान् की यह परम्परा टूटी नहीं है। जैसे गौतम स्वामी के मोक्ष होने पर सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान हुआ और सुधर्मा स्वामी के मोक्ष होने पर जम्बू स्वामी को केवलज्ञान हुआ। अत: यह तीनों अनुबद्ध केवली हैं।
ये सभी केवली भगवन्त जब देह त्याग करके सिद्ध भगवान् बन जाते हैं तो वहाँ सबका आत्मा अपने अनन्त गुणों के एक समान शोभता है। इस तरह आत्मा की ही अरिहन्त और सिद्ध दशा में परिणति होती है। कोई भी भव्य आत्मा पुरुषार्थ करके परमात्म तत्त्व को प्राप्त करने के लिए स्वतन्त्र है।
हे अनेकान्तवादिन ! वस्तु तत्त्व अनेकान्त स्वरूप है। नियतता और अनियतता भी अनेकान्त धर्म के दो पहलू हैं। सर्वथा नियतपना या सर्वथा अनियतपना दोनों ही एकान्त अवधारणाएँ हैं। मोक्ष को प्राप्त करने वाले जीव भी दोनों ही तरह के देखने में आते हैं।
अक्सर स्वाध्यायी जन एक मात्र नियतपना ही दृष्टि में रखते हैं। निश्चितवाद का उदाहरण देते हैं। एक-दो उदाहरण का बार-बार कथन करके अपने मत की पुष्टि करते हैं। निश्चितवादता में मरीचि का दृष्टान्त सर्वप्रथम सुनाते हैं। भगवान् ऋषभदेव ने अपने ज्ञान में देखा था कि वह जीव अन्तिम तीर्थंकर बनेगा सो बना। इसलिए कहते हैं जिस जीव को तीर्थंकर बनना है, वही बनेगा। सब निश्चित है।
हे स्वाध्यायरुचिक आत्मन् ! आपका यह कहना सत्य है कि भगवान ने मरीचि को अन्तिम तीर्थंकर के रूप में देखा सो हुआ। इस उदाहरण से नियतवाद के रूप में जो देखा सो हुआ। परन्तु इस एक उदाहरण से नियतवाद का सिद्धान्त पोषण करना तो एकान्तवाद का समर्थन करना है। नियतवाद या भाग्यवाद का एकान्त धारण करना तो जैन दर्शन से बाहर हो जाना है। महान् दार्शनिक आचार्य ने इस पुरुषार्थवाद और भाग्यवाद के विषय में भी स्याद्वाद पद्धति अपनाई है। आचार्य समन्तभद्र देव आप्तमीमांसा में कहते हैं