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अल्लाह, बुद्ध आदि परमात्मा को अपनी-अपनी कौम का ही मान लिया है। कोई निर्गुण परमात्मा मानता है, कोई सर्वव्यापी परमात्मा मानता है। इस परमात्मा का सही-सही निश्चय होने पर ही भ्रान्ति दूर होकर कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
जैनदर्शन में एक परमात्मा की स्वीकारता नहीं है। सर्वज्ञ कथित प्रवचनों से हमें सम्यग्ज्ञान होता है और उस ज्ञान से परमात्मा का सही स्वरूप सामने आता है। परमात्मा अर्थात् परम, उत्कृष्ट आत्मा।
तीर्थंकर एक क्षेत्र में अपने समय में एक ही होते हैं। वह तीर्थंकर अरिहंत परमात्मा के रूप में जब तक विचरण करते हैं तब तक उपदेश, विहार के माध्यम से भव्य जीवों को प्रवचन सुनाकर और दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं। अपनी आयू पूर्ण हो जाने पर शरीर छोड़कर वही अरिहंत परमात्मा सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं। सिद्ध अवस्था में उनका आत्मा मात्र ही रहता है इस तरह परमात्मा के दो भेद हैं अरिहंत परमात्मा और सिद्ध परमात्मा। अरिहंत परमात्माओं में कुछ अन्तर होता है। वह अन्तर भी शरीर और कर्म की अपेक्षा होता है। आत्मा के अनन्त चतुष्टय की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं होता है। केवलज्ञान की अपेक्षा सभी समान हैं। सभी सर्वज्ञ हैं। ऐसे केवली भगवान् या अरिहंत परमात्मा सात प्रकार के हैं।
१.तीर्थंकर केवली- जो तीर्थंकरपने के साथ-साथ अरिहंत दशा को धारण करते हैं, वह तीर्थंकर केवली हैं। तीर्थंकर एक विशिष्ट पद है। एक ऐसा पद जो सर्वोत्कृष्ट है। इन तीर्थंकर का ही भरत आदि क्षेत्रों में तीर्थ प्रवर्तन चलता है। धर्म तीर्थ को आगे बढ़ाने वाले और जिनवाणी से प्रवचन प्रदान करने वाले यह तीर्थंकर केवली होते हैं। नाम कर्म का एक विशेष भेद तीर्थंकर नाम कर्म है। इस कर्म का जो बंध करते हैं उन्हें ही अरिहंत अवस्था के साथ इसका विशेष फल प्राप्त होता है। अरिहंत दशा में समवशरण की अद्भुत रचना होना इस तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से होता है।
२.सामान्य केवली- जो केवलज्ञानी हैं अर्थात् अरिहन्त अवस्था को प्राप्त हैं किन्तु तीर्थंकर नाम कर्म का उदय नहीं है, उन सर्वज्ञ आत्माओं को सामान्य केवली कहते हैं। ये आत्माएँ केवलज्ञान प्राप्त करके विहार करती हैं, उपदेश देती हैं किन्तु इनके नाम का तीर्थ नहीं चलता है। ये आत्माएँ भी गन्धकुटी पर सिंहासन में विराजमान होती हैं। इनके केवलज्ञान की पूजा करने के लिए देव लोग आते हैं। किन्तु जैसा समवसरण आदि का वैभव तीर्थंकर भगवन्तों का होता है वैसा इनकी गन्धकुटी मात्र का नहीं होता है। सामान्य केवली भगवान् के सिंहासन आदि कुछ ही प्रातिहार्य होते हैं किन्तु तीर्थंकर केवली के अष्ट प्रातिहार्य नियम से होते हैं।
जैसे आदिनाथ भगवान् तो तीर्थंकर केवली हैं किन्तु बाहुबली भगवान् और बाद में राज्य त्याग कर भरत भगवान् भी केवलज्ञानी हुए तो बाहुबली और भरत भगवान् सामान्य केवली हुए। एक तीर्थंकर के समक्ष सामान्य केवली भी बहुत से उपस्थित रहते हैं।
३. मूक केवली- यह केवली भगवान् अरिहन्त अवस्था को प्राप्त करके कभी उपदेश नहीं देते हैं। इन्हें मूक केवली कहा जाता है। उपदेश नहीं देने का कोई कारण शास्त्रों में नहीं मिलता है।
४. उपसर्ग केवली- जो मुनि अवस्था में उपसर्ग सहनकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं उन्हें उपसर्ग केवली कहते हैं।