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अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः। बुद्धि पूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात्॥ ९१
अर्थात् कोई भी इष्ट या अनिष्ट जब बुद्धिपूर्वक घटित होता है तो अपने पुरुषार्थ से होता है और जब वही इष्ट या अनिष्ट अबुद्धिपूर्वक घटित होता है तो अपने भाग्य से घटित हुआ जानना।
इसलिए आत्मन्! मात्र उदाहरण से एकान्त धर्म की पुष्टि नहीं हो सकती है। तीर्थंकर जैसे महान् पद को धारण करने वाले जीव कथंचित् निश्चित होते हैं। आगामी भव में जिन्हें तीर्थंकर बनना है उनमें से भी कुछ जीवों का निश्चितपना शास्त्रों से ज्ञात होता है। जैसे राजा श्रेणिक का जीव जो नरक से निकलकर उत्सर्पिणी काल का प्रथम तीर्थंकर महापद्म होगा। तीर्थकर जैसे विशिष्ट पदों का निश्चित होना सम्भव है किन्तु सामान्य से अरिहन्त पद प्राप्ति के लिए और मोक्ष जाने के लिए कोई निश्चितता नहीं है।
देखो! अनिश्चितता को दिखाने वाले भी उदाहरण शास्त्रों में मिलते हैं। उनमें से एक दृष्टान्त यहाँ देते हैं।
उत्तर पुराण में लिखा है कि एक बार राजा श्रेणिक भगवान् महावीर के समवसरण में पहुँचकर हाथ जोड़कर स्तुति करके गौतम गणधर से पूछे कि हे प्रभो ! मैंने मार्ग में एक तपस्वी मुनिराज देखे हैं। वे ऐसा ध्यान कर रहे हैं मानो उनका रूप धारण कर साक्षात् ध्यान ही विराजमान हो। हे नाथ! वे कौन हैं? उनके विषय में जानने का मुझे बड़ा कौतुक हो रहा है, सो आप कृपा कर कहिए। इस प्रकार राजा श्रेणिक के पूछे जाने पर श्री गणधर भगवान् इस प्रकार कहने लगे
इस भरत क्षेत्र में चम्पा नगरी में श्वेतवाहन राजा राज्य करता था। एक दिन भगवान् महावीर से धर्म का स्वरूप समझकर उसका चित्त वैराग्य से भर गया। जिससे अपने पुत्र को राज्य देकर उन्होंने संयम धारण कर लिया। बहुत दिन तक मुनियों के समूह के साथ विहार करके अखण्ड संयम को धारण करते हुए वे मुनिराज ही यहाँ आकर विराजमान हुए हैं। यह दश धर्मों से सदा प्रेम रखते हैं, इसलिए लोग इन्हें 'धर्मरुचि' कहकर पुकारते हैं।
आज यह मुनि एक महीने के उपवास के बाद नगर में भिक्षा के लिए गए। वहाँ तीन मनुष्य मिलकर इनके पास आए। उनमें एक मनुष्य मनुष्यों के लक्षण शास्त्र का जानकार था। उसने इन मुनिराज को देखकर कहा कि इनके लक्षण तो साम्राज्य पदवी के कारण हैं परन्तु ये भिक्षा के लिए भटकते फिरते हैं, इसलिए शास्त्र में जो कहा है, वह झूठा मालूम होता है। इसके उत्तर में दूसरे मनुष्य ने कहा कि शास्त्र में जो कहा है, वह झूठ नहीं है। ये साम्राज्य का त्याग कर ऋषि हो गए हैं। किसी कारण से विरक्त होकर इन्होंने अपना राज्य भार अपने पुत्र को छोटी उम्र में ही दे दिया। तीसरा मनुष्य बोला कि 'इनका तप पाप का कारण है, इससे क्या लाभ? यह बड़ा दुरात्मा है। इसलिए दया छोड़कर लोक व्यवहार से अनभिज्ञ असमर्थ बालक को राज्यभार सौंपकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यहाँ तप करने के लिए आया है। मन्त्री आदि सब लोगों ने उस बालक को साँकल से बांध रक्खा है और राज्य का विभागकर पापी लोग इच्छानुसार स्वयं उसका उपभोग करने लगे हैं।' तीसरे मनुष्य के उक्त वचन सुनकर इन मनि का हृदय स्नेह और मान से प्रेरित हो उठा जिससे वे भोजन किए बिना ही नगर से लौटकर वन के मध्य में वृक्ष के नीचे आ बैठे हैं। बाह्य कारणों के मिलने से उनके अन्त:करण में तीव्र अनुभाग वाले क्रोध कषाय के स्पर्धकों