________________
है ।
अभ्यन्तर तप के छह भेद - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग हैं।
देहे अणाइमोहो जीवाणं सहावदो सदा होइ । तम्मोहस्स विणासो तवेण विणा णेव कदा होदि ॥ ३ ॥
जीव कर्म का ज्यों अनादि से बन्ध रहा त्यों तन का भी तन में आतम रमता भ्रमता मोह बढ़ाता ममता भी । इसी मोह का क्षय कर देना तप का काम अनूठा है किए बिना तप मोक्ष दिखाए सच मानो वह झूठा है ॥ ३ ॥
अन्वयार्थ : [ जीवाणं ] जीवों को [ देहे ] शरीर में [ अणाइमोहो ] अनादि से मोह [ सहावदो ] स्वभाव से [ सदा ] सदा [ होइ ] होता है [ तम्मोहस्स ] उस मोह का [ विणासो ] विनाश [ तवेण ] तप के [ विणा ] बिना [ कदा] कभी [ णेव ] नहीं [ होदि ] होता है ।
भावार्थ : इस जीव, आत्मा को अपनी देह में मोह अनादि काल से है । यह मोह उसका स्वभाव से बना हुआ है। जब से जीव है तब से आत्मा में मोह है, ऐसे स्वाभाविक मोह को आत्मा से दूर करना बहुत कठिन है । उस मोह का विनाश तप के द्वारा होता है । उपवास, रस परित्याग आदि बाह्य तप और ध्यान आदि अन्तरंग तप के द्वारा देह से ममता दूर होती है। यह तप आत्मा का इसीलिए उपकारी है । तप के अतिरिक्त अन्य कोई साधन इस शरीर की ममता का त्याग करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। सभी महापुरुषों ने इसी कारण से महान तप को सदैव अंगीकार किया है।
ऐसे तप को करते हुए क्या सावधानी रखें ? यह कहते हैं
खाईपूजालाहं चइ ऊणं सम्मत्त विसुद्धीए । जो कुदि तवोकम् अप्पं वि हु महाफलं देदि ॥ ४ ॥
बड़े-बड़े उपवासादिक यदि करने की सामर्थ्य न हो तो भी समकित की शुद्धि से अल्प तपस्या बहुत अहो । यदि तप फल से चाह रहा तू कीर्ति कामिनी पूजा को तो वह तप तेरा निष्फल ज्यों, कृषक चाहता भूसा को ॥ ४ ॥
अन्वयार्थ : [ खाईपूजा-लाहं ] ख्याति, पूजा, लाभ को [ चइऊणं ] त्याग करके [ सम्मत्त विसुद्धीए ] सम्यक्त्व की विशुद्धि के साथ [ जो ] जो [ अप्पं वि ] थोड़ा भी [ तवोकम्मं ] तप: कर्म [ कुणदि ] करता है [हु] वह निश्चित्त ही [ महाफलं ] महान् फल [ देदि ] देता है।