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३. जो लोग इस सिद्धान्त पर विश्वास रखते हैं, वे भी झूठ बोलते हैं। यदि इतना ही विश्वास तुम्हें सर्वज्ञता पर है तो क्यों अपने अलग से मन्दिर, अलग से गढ़ बनाए जा रहे हैं। क्यों लोगों को फुसला कर अपनी समाज बनाई जा रही है। क्यों गरीबों को, या गैर समाज को लालच देकर उनको अपने गढ़ में मिलाया जा रहा है? इससे सिद्ध होता है कि ऐसे लोगों को न सर्वज्ञ पर विश्वास है और न सर्वज्ञ के कहे सिद्धान्तों पर । यह विचार हुआ युक्ति से । आओ ! अब हम विचार करते हैं शास्त्रीय पद्धति से, आगम से ।
भगवान् के केवलज्ञान में समस्त द्रव्यों के गुण और पर्याय त्रिकालवर्ती युगपत् स्पष्ट झलकते हैं, इस विषय में हमें तनिक भी सन्देह नहीं करना है । केवलज्ञान का यही स्वरूप है । सर्वज्ञदशा न्याय सिद्ध है । फिर भी भगवान् ने यह नहीं कहा है कि तुम्हें हमने जाना है या देखा है अतः तुम्हारा परिणमन हमारे अधीन है। वस्तु का परिणमन जैसा हमारे ज्ञान में है वैसा ही होगा, तुमको पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं है । या तुम्हारा किया हुआ पुरुषार्थ भी ऐसा ही होगा जैसा हम देख रहे हैं ।
भगवान् ने केवलज्ञान से जो देखा, जैसा देखा वह सब हमें स्वीकार्य है । भगवान् ने अपनी दिव्यध्वनि में कहीं भी ऐसा नहीं कहा कि वस्तु का परिणमन, कार्य की सिद्धि हमारे अधीन है। ऐसी स्थिति में हम उस बारे में क्यों सोचें जिसे सोचना हमारे ज्ञान से परे है। भगवान् ने क्या देखा, क्या जाना? इससे हमें मतलब ही नहीं है । भगवान् के देखने, जानने से हमारा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। हमें तो इस बात से मतलब है कि भगवान् ने क्या कहा? हमें क्या आज्ञा दी? विश्व की व्यवस्था के क्या कारण बताए ?
सत्य
भगवान् के कहने मात्र से भी ऐसे भगवान् पर हम कभी विश्वास नहीं करेंगे जो कहते हों कि मैंने कहा सो बाकी सब असत्य है । एक तो भगवान् ऐसा कह नहीं सकते क्योंकि इस प्रकार कथन करने से आप सर्वज्ञ भगवान् और अन्य भगवान् में क्या अन्तर रहा? दूसरी बात अन्यत्र कहा जाता है, हे प्राणिन् तुम मेरी शरण में आओ। मेरी शरण छोड़कर तुम्हारा उपकारक कोई नहीं? मैं ही सर्वज्ञ हूँ। और इधर आपके सर्वज्ञ भगवान् भी कहें कि जो मैंने देखा वही होगा। मेरे बिना इस विश्व का कोई कार्य नहीं होगा। ऐसी स्थिति में आप सर्वज्ञ भगवान् और अन्यत्र विद्यमान ईश्वर का उपदेश एक समान हो गया । विश्व पर अपनी सत्ता कायम रखने वाले दोनों भगवान् के उपदेशों में कुछ अन्तर नहीं है। हमें ऐसे किसी भगवान् की जरूरत नहीं है जो मेरी आत्मा पर और विश्व पर अपना अधिक जताता हो ।
जैनदर्शन विज्ञात्मन्! हम वे लोग नहीं हैं जो किसी की, कुछ भी बातों पर विश्वास कर लें। भगवान् पर हम विश्वास उनकी वाणी से करेंगे। उनके कहे वचनों को न्याय की कसौटी पर कसेंगे। जब वे वचन निर्दोष और युक्तियुक्त सिद्ध होंगे तभी हमें मान्य होंगे और उन वचनों को कहने वाला वक्ता मान्य होगा।
यदि आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र जी के ग्रन्थों को पढ़कर तुम्हारी बुद्धि भ्रमित हो गई हो तो अब आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अकलंक देव के ग्रन्थों का अध्ययन करो ।
जो अपने को सर्वज्ञ कहे और कहे कि जो मैंने अपने ज्ञान में देखा है वही घटित होगा, विश्व की व्यवस्था का और कोई हेतु नहीं है, तो कान खोलकर सुन लो ! हमें न ऐसे सर्वज्ञ की जरूरत है और न उस सर्वज्ञ के कहे