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माध्यम से एकान्त का प्रचार-प्रसार खुले आम हो रहा है। यह हठाग्रह इतना ज्यादा बढ़ गया कि वह कहते हैं- 'कोई भी पुरुषार्थ भी यदि हो रहा है तो वह भी केवलज्ञानी ने जैसा जाना उसी रूप से हो रहा है। भगवान् के ज्ञान के बिना हमारा परिणमन अन्यथा नहीं हो सकता है। सर्वज्ञ देव ने तीन लोक के सभी पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायें एक साथ देखी हैं। उनके ज्ञान में जो झलका वही होगा। व्रत, संयम धारण करने से तुम उस परिणमन को अन्यथा नहीं कर सकते हो। जब मोक्ष होना होगा, तभी होगा। जब जो पर्याय निकलना होगी, तभी निकलेगी। वर्तमान का तुम्हारा पुरुषार्थ अज्ञानमय है, मिथ्या है। पहले सर्वज्ञ पर विश्वास करो, तभी सम्यग्दर्शन होगा। सम्यग्दर्शन के बिना इस जीव ने अनन्त बार व्रत, संयम धारण किया किन्तु संसार ही मिला है। मोक्ष के रहस्य को समझो। यह बहुत दुर्लभ है। सम्यग्ज्ञान के बिना कर्म से मुक्ति नहीं। यह रहस्य समझना ही सम्यग्ज्ञान है।'
स्वाध्यायप्रेमिन् ! कहीं तुम भी भटक तो नहीं गए। तुम भी सोच रहे होगे कि इसमें गलत क्या है? इसमें कुछ बातें सही लग रही होंगी, कुछ गलत भी प्रतिभासित हो रही होंगी। ऐसा होना स्वाभाविक है। उसका कारण भी यह है कि अनेकान्त दर्शन की अवधारणा और न्याय आधारित वस्तु तत्त्व का निर्णय तुम्हें नहीं है। ध्यान रखना! बाजार में कोई भी माल पूर्णत: अशुद्ध कोई नहीं बेच सकता। जब भी बिकेगा तो शुद्ध वस्तु में मिलकर ही बिकेगा। इसी प्रकार मिथ्या, एकान्त अभिप्राय भी शुद्ध जिनवाणी से निकालकर ही आपको दिखाया जायेगा ताकि आपको जिनवाणी पर विश्वास बना रहे। आज जिनवाणी में जनवाणी इस तरह मिश्रित होकर आ रही है कि भोला-भाला आत्मा मिलावट को समझ ही नहीं पाता है।
यदि आप कुछ भी पढ़े-लिखे नहीं हैं तो भी निराश न होवें, वस्तु तत्त्व का निर्णय आपको होगा। यदि आप पढ़े-लिखे हैं तो शास्त्रीय उद्धरण और उदाहरण देकर इस बात को समझेंगे। दोनों प्रकार के जिज्ञासुओं को समाधान मिलेगा। धैर्य धारण करके जिनवाणी का रसपान करो।
जो शास्त्र स्वाध्याय नहीं किए हैं, जिन्होंने जिनदर्शन की गूढ़ता को नहीं समझा है, वे भी इतना तो समझते हैं कि जो अभिप्राय हमें पराश्रित बना दे, आलसी बना दे, गुणों से दूर कर दे और तपस्वी का निन्दक बना दे, वह अभिप्राय(एटीट्यूड) कभी भी किसी का हितकारी नहीं हो सकता है। जिस अभिप्राय या अवधारणा का अन्तिम परिणाम शून्य हो वह अभिप्राय कभी भी समीचीन नहीं हो सकता है।
सर्वप्रथम एक क्षण के लिए यदि हम मान लें कि 'जो-जो वीतराग ने देखी है, वैसा ही होगा।' तो इस सोच का परिणाम क्या होगा?
१. हम पराश्रित होंगे, क्योंकि हम अपनी इच्छानुसार आत्महित नहीं कर सकते हैं। हमने सुना था कि जैन दर्शन में वस्तु स्वतन्त्र है, वह अपने परिणमन से परिणमन करती है। कोई भी ब्रह्मा, विष्णु उस परिणमन को न करा सकता है और न उस परिणमन को रोक सकता है। जैन दर्शन में ईश्वरवाद नहीं है। न्याय ग्रन्थों में ईश्वर कर्तृत्ववाद का खण्डन पूर्वाचार्यों ने डंके की चोट पर किया है। जैन दर्शन को पढ़कर हमें सबसे बड़ी प्रसन्नता इसी बात की हुई थी कि हमारे ऊपर किसी ईश्वर की सत्ता नहीं चल रही है। मेरा आत्मा स्वतन्त्र है। वह किसी ईश्वर के द्वारा कभी मिटाया नहीं जा सकता। इसीलिए अपनी आत्मा का हित हमें स्वयं करना है। जैन दर्शन ईश्वर कर्तृत्व के आश्रित रहना कभी नहीं सिखाता है। आचार्य समन्तभद्र, आचार्य अकलंक देव, आचार्य विद्यानन्द जैसे महान् दर्शनकारों,