Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 141
________________ रहस्य को कहीं उद्घाटित नहीं किया वह पचास, साठ वर्ष से एक रहस्य हो गया ! समझ नहीं आता कि कोई कल्की हो गया या कलिकाल का एक नया दोष हो गया! पूजा, विधान छोड़कर क्रमबद्धपर्याय का विधान रच गया! यह काम कोई श्रमण कभी नहीं कर सकता। जो श्रमण रोज प्रतिक्रमण करता है, वह तो कदापि नहीं कर सकता। क्योंकि उसे मालूम है कि 'अच्छा कारिदं, मिच्छा मेलिदं।' अर्थात् स्वेच्छा से कुछ मिला देना या मिथ्या तथ्य मिलाकर कहना ये ज्ञान के दोष हैं। ये ज्ञान की आसादना करने वाले दोष हैं। जिनवाणी के एक अक्षर को अन्यथा पढ़ना, कुछ का कुछ मिलाकर पढ़ना भी जिसे दोष दिखता हो वह श्रमण कभी भी इस कार्य की अनुमोदना नहीं कर सकता। आश्चर्य! घोर आश्चर्य! जो रहस्य किसी निर्ग्रन्थ ने, दयामूर्ति ने नहीं कहा उसे एक सग्रन्थ और निर्दयी, असंयमी बता गया। एक नया पन्थ बन गया। यह वाक्य तो समूचे आगम में नहीं है किन्तु यह खता बनी कैसे? तो सुनो। एक वाक्य, मात्र एक वाक्य समूचे आगम, सिद्धान्त और अध्यात्म ग्रन्थों में असंयमियों ने ढूंढा। वह वाक्य आचार्य अमृतचन्द्र जी की समयसार पर लिखी आत्मख्याति टीका का है। पढ़ो 'जीवो हि तावत् क्र मनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः।' यहाँ जो ‘क्रमनियमित' शब्द आया है बस इसी एक शब्द को खुजला-खुजला कर इतनी बड़ी खता बना दी कि इसकी पीड़ा बनाने वाले को नहीं है किन्तु उस खता का दुष्परिणाम, दुरन्त देखने वाले को अवश्य होती है। इसका अर्थ किया गया-क्रम यानि क्रमशः तथा नियमित यानि निश्चित । अर्थात् जिस समय जो पर्याय आने वाली है, वही आएगी, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। विचार करो भव्यात्मन् ! क्या इस शब्द का यही अर्थ है। यदि यही अर्थ हो तो भी नहीं मानना क्योंकि हमने पहले भी चेताया है कि जिसका परिणाम अन्त में अहितकर हो जिसका फल पुरुषार्थ का निषेध और भाग्यवाद की पुष्टि हो, वह कभी सही अर्थ नहीं हो सकता। एक बहुत बड़ी हिंसा तब हुई थी जब अहिंसा पर आघात हुआ था। अजैर्यष्टव्यम्' अर्थात् अज यानि बकरा कहकर अर्थ किया गया। और उस समय के वसु राजा ने कहा यही अर्थ सही है क्योंकि शब्दकोश में अज माने बकरा लिखा है। दूसरा अर्थ बताने वाले नारद कहता रहा राजन् ! यह अर्थ ठीक नहीं है। अज का अर्थ यहाँ नहीं उगले वाला धान्य' लेना। लेकिन पर्वत के मोह में राजा वसु ने वही अर्थ किया और उसी का समर्थन किया जो पर्वत ने कहा था। उस मोह का कारण एक बाई(पर्वत की माँ) भी थी और देखते-देखते राजा वसु नरक चला गया। यह तो केवली भगवान् ने देखा कि राजा वसु नरक में गया सो बता दिया किन्तु वर्तमान में कोई सर्वज्ञ नहीं है। हाँ! निर्णय करने की बात आये तो ऐसे राजा वसु जरूर मिल जाएंगे। उस चतुर्थ काल में 'अहिंसा' के सिद्धान्त पर यह जबरदस्त कुठाराघात था। परिणाम आज तक दिख रहा है अहिंसा से ज्यादा हिंसा का ताण्डव दिख रहा है। ठीक उसी तरह इस पंचम काल में 'अनेकान्त' के सिद्धान्त पर कुठाराघात हुआ और उसका परिणाम भी आज दिख रहा है।

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