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छह द्रव्य हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें जीव, पुद्गल को छोड़कर बाकी सभी द्रव्य एकान्ततः शुद्ध हैं। प्रत्यय, निमित्त, कारण एक ही बात है। 'स्व प्रत्यय' का अर्थ है द्रव्य की अपनी निजी योग्यता।
हे भव्य ! प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप होने से ही सत् है। प्रत्येक द्रव्य में यह परिणमन प्रति समय चलता रहता है। जो शुद्ध द्रव्य हैं उनका परिणमन हमेशा शुद्ध रूप ही रहता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनमें कभी भी अशुद्ध परिणमन न हुआ, न हो रहा और न कभी होगा। ये शुद्ध द्रव्य अपनी ही उपादान शक्ति से परिणमन करते रहते हैं। स्वप्रत्यय से स्वयं वस्तु का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप परिणमन कैसे होता रहता है, उसमें भी क्या कारण है? तो आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में इसका उत्तर दिया है। -
'स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्धया हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च।' स.सि. ५/७
अर्थात् स्वनिमित्त से जो उत्पाद, व्यय होता है वह पदार्थ में रहने वाले अनन्त अगुरुलघु गुणों के कारण होता है। ये अगुरुलघु गुण आगम प्रमाण से ही जाने जा सकते हैं। ये गुण षट्स्थान में पतित वृद्धि और हानि से प्रवर्तन करते रहते हैं। इसलिए स्वभाव से इनका उत्पाद, व्यय होता रहता है।
शुद्ध जीव और शुद्ध पुद्गल(परमाणु) का परिणमन भी इसी प्रकार होता है। अशुद्ध द्रव्य जीव और पुद्गल दो ही होते हैं। उनका यह अशुद्ध परिणमन वैभाविक परिणमन कहलाता है। चूँकि अगुरुलघु गुण के द्वारा परिणमन तो प्रत्येक द्रव्य में होता है चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध हो। इसलिए अशुद्ध द्रव्यों में भी प्रतिसमय जो उत्पाद, व्यय ध्रौव्य रूप सूक्ष्म परिणमन होता रहता है वह स्वप्रत्यय से होता है। और पर पदार्थ के निमित्त से जो परिणमन होता है वह पर प्रत्यय से स्थूल रूप परिणमन होता है। इस तरह हम देखते हैं कि वस्तु में परिणति स्व पर प्रत्यय के कारण होती है। इस तरह अशुद्ध वस्तु में परिणमन स्व प्रत्यय के साथ पर प्रत्यय से भी होता है इसी को सर्वार्थसिद्धि में इस प्रकार कहा है- 'द्विविधः उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।' इस तरह हम देखते हैं कि स्वप्रत्यय द्रव्य की निजी योग्यता है। इसी योग्यता को उपादान कारण कहते हैं। यह उपादान कारण प्रत्येक द्रव्य में स्वप्रत्यय से मौजूद है। इसका कारण है कि प्रत्येक द्रव्य में चाहे वे शुद्ध हों या अशुद्ध, वे द्रव्य अगुरुलघु गुण के द्वारा स्वयं परिणमन करने की योग्यता रखते हैं।
पर प्रत्यय में 'च' शब्द से स्वप्रत्यय भी जोड़कर चलना क्योंकि केवल पर प्रत्यय से कोई भी परिणमन नहीं होता है यदि वस्तु में परिणमन की स्वयं योग्यता न हो। इसलिए प्रत्येक परिणमन 'स्व-पर प्रत्यय' से होता है, यह जानना। आचार्य अकलंक देव ने इसी पर प्रत्यय को बाह्य प्रत्यय कहा है। यह बाह्य प्रत्यय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के लक्षण वाला है। 'द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणो बाह्यः प्रत्ययः -' राज. वा. ५-२
अरे पाठकों! डरो मत । समझो। यह इसलिए बताया जा रहा है कि आचार्यों के सिद्धान्त में कहीं भी मतभेद नहीं है। जिस तरह आचार्य समन्तभद्र जी कहते हैं कि कोई भी कार्य बाह्य और अन्तरङ्ग कारणों की समग्रता से होता है उसी प्रकार आचार्य, पूज्यपाद, आचार्य अकलंक देव, आचार्य उमास्वामी आदि भी तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी टीकाओं में कहते हैं। बात एक ही है। स्वप्रत्यय का अर्थ है अन्तरङ्ग कारण। इसी को उपादान कारण कहते हैं।