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न्यायवेत्ताओं के माध्यम से जब हमने आप्तमीमांसा, अष्टशती, अष्टसहस्री, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, तत्त्वार्थ शोकवार्तिक जैसे ग्रन्थों का अध्ययन किया तो हमने राहत की श्वास ली कि अनन्त काल से जैन दर्शन की इसी विशिष्टता को ग्रहण न करने के कारण हम संसार में भटकते रहे हैं। आत्मा स्वतन्त्र है और अपने परिणमन का जिम्मेदार वह स्वयं है। किसी अदृश्य शक्ति, किसी अदृश्य परमात्मा की रहमतों का मेरा आत्मा तलबदार नहीं है। ईश्वर को दर-किनार करके स्वयं ईश्वर बनने का पुरुषार्थ एक मात्र जैन दर्शन सिखाता है। ईश्वर का महत्त्व किन अर्थों में है उस बात को यहाँ बीच में लाना अभी अप्रासंगिक समझता हूँ। ईश्वर को जैन दर्शन मानता है लेकिन पराधीनता से नहीं। आत्मा ईश्वर के पराश्रित नहीं है, बल्कि आत्मा ईश्वर के उपकारों को मानता है। शायद यह बात नहीं समझने के कारण ही कुछ लोगों ने जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन कहा है।
आज हम इसी आधार पर पुनर्विचार करें कि तमाम स्वाध्याय करने के बाद हम कौन सा सार लेकर दुनिया के सामने आए। केवलज्ञानी ईश्वर के देखने के अनुसार यदि हमारा परिणमन है तो हम फिर से पराश्रित हो गए। जिस ईश्वर की पराधीनता से बचकर हमने जैन सिद्धान्तों को पढ़ा, सीखा और अन्त में हम भी किसी न किसी रूप में उस पराधीनता को फिर स्वीकार करने लगे तो कहना होगा कि संसार गोल है। जहाँ से यात्रा शुरू हुई थी वहीं पर घूमकर फिर आ गए। मोक्ष की राह तुम्हें मिलकर भी मिल न सकी। बात वही है पहले ईश्वर के कर्तृत्ववाद से हम पराधीन थे, अब ईश्वर के सर्वज्ञवाद से हम पराधीन हो गए। कोई अन्तर नहीं है इन दोनों अवधारणाओं में। पहले ईश्वर करता था अब आपका सर्वज्ञ आपको करा रहा है। अजैनों में ईश्वर करता है तो जैनों में ईश्वर का ज्ञान कर रहा है, बात एक ही है। आत्मा का कर्तृत्ववाद हमने नहीं स्वीकारा तो आत्मा के ज्ञान(केवलज्ञान) का कर्तृत्व हम स्वीकारने पर जोर दे रहे हैं। कुल मिलाकर हम उसी खाई में गिरने की पुनः तैयारी कर रहे हैं जिस खाई से हमें निकलने का संबल मिला था।
२. एकान्त मत की पहचान यह है कि जिसे मान लेने पर वस्तु की व्यवस्था ही न बने और शून्यता उपस्थित हो जाए। वस्तु को सर्वथा नित्य मान लेने पर भी शून्यता आ जाती है और वस्तु को सर्वथा अनित्य मान लेने पर भी शून्यता आ जाती है। इसीलिए एकान्तवाद मिथ्या है यह हमें अन्ततोगत्वा शून्य में पटक देता है। यह न्याय पद्धति का सार है। इसी को आचार्य समन्तभद्र देव ने इस प्रकार कहा है- 'विधेर्निषेधश्च च शून्यदोषात्।' हम विचार करें कि सर्वज्ञ के केवलज्ञान के आश्रित हो जाने पर हम स्वयं निश्चिन्त होंगे। हमें किसी भी व्रत, संयम, तप का कष्ट उठाने की जरूरत नहीं रहेगी। दुनिया से जैन धर्म का नामोनिशान भी उठ जाएगा क्योंकि जब सब कुछ सर्वज्ञ आश्रित है तो अलग से जैन धर्म यह नाम भी देने की क्या जरूरत है? सर्वत्र शून्यता, शून्यता आ जाएगी। क्या जरूरत थी सर्वज्ञ को उपदेश देने की? इस दुनिया में आलसी और मक्कारों की कोई कमी नहीं है। जब जिसकी काल लब्धि आएगी, मोक्ष की पर्याय प्रकट हो जाएगी। क्या जरूरत थी आचार्य कुन्दकुन्द को शास्त्र लिखने की, क्या जरूरत थी संयम की, दया धर्म की बात कहने की, क्या जरूरत थी उन्हें समयसार लिखते समय यह कहने की कि 'यदि
ऊँ तो छल ग्रहण नहीं करना।' जिसका जो परिणमन होता है वह तो होगा ही। क्या आचार्य कुन्दकुन्द के कहने मात्र से कोई छल ग्रहण करना छोड़ देगा? क्या जरूरत है मुनि और श्रावकों को छह आवश्यक क्रियाओं में लगाने की? भगवान् ने जिसका मरण जब देखा है तब होगा ही ऐसी स्थिति में क्या जरूरत थी विष भक्षण से, दुर्घटना से बचने की? बन्धुओं! यदि इस सिद्धान्त को मान लिया जाय तो सर्वत्र शून्यता छा जाएगी। दुराचार और सदाचार सब बराबर हो जाएंगे।