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हे साधक! तुम इस बात से परेशान मत होओ कि दूसरा तुम्हारे लिए क्या सोच रहा है ? तुम स्वयं इतने समर्थ बनो कि कोई चाह कर भी तुम्हें परेशान न कर सके। सदैव अपनी आत्म समाधि में लीन वही साधक होता है जो दूसरे से निर्विकल्प होता है। यह जिनलिंग पर की अपेक्षा नहीं रखता है। लिंगंण परावेक्खो ' यह सूत्र साधु समाधि भावना को बलवती बनाता है।
पराश्रित साधु समाधि क्या है ?
जो चित्ते ण हि चिंतइ वक्कं बोल्लेदिण अप्पियं किंचि। साधम्मि सुहं इच्छइ साहु समाहि भावणा तस्स॥३॥
किसी साधु के लिए कभी भी नहीं सोचता वक्र सदोष नहीं कभी भी अप्रिय बोले वचन काय से मृदु निर्दोष। छोटे-बड़े सभी सहधर्मी सबके सुख की चाह करे उस साधक केहृदय कमल मेंसाधुसमाधि सुभाव भरे॥३॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [ चित्ते ] चित्त में [वक्कं] वक्र [चिंतइ ] चिन्तन [ण हि ] नहीं करता है [ किंचि] थोड़ा भी [ अप्पियं] अप्रिय [बोल्लेदि] बोलता है [साधम्मि] सधर्मी का [सुहं] सुख [इच्छइ ] चाहता है [साहुसमाहिभावणा] साधु समाधि की भावना [ तस्स ] उस साधु की होती है।
भावार्थ : अन्य साधु की समाधि बनी रहे अर्थात् उनके चित्त में संक्लेश न हो। जो अन्य साधु के लिए बुरा, उलटा चिन्तन नहीं करता है, जो थोड़ा भी अप्रिय नहीं बोलता है और यही चाहता है कि सधर्मी साधु सुख से रहे। अपनी मन, वचन, काय की चेष्टा वह इस तरह करता है कि सधर्मी को दुःख न हो। यही साधु समाधि भावना उस साधु की है।
साधु भी जब अन्य साधु के सुख की इच्छा नहीं करता है तो यह बड़ा आश्चर्य है । हे साधो ! दूसरे साधु को दुःख पहुँचाना उसकी रत्नत्रय युक्त आत्मा को पीड़ा पहुँचाना है। सामान्य जीव घात में जैसे हिंसा है उससे भी ज्यादा हिंसा साधु को दु:खी करने में है। यह भाव हिंसा अन्तरङ्ग की कषाय से ही होती है। अन्य जीवों की द्रव्य हिंसा तो बिना कषाय के भी हो जाती है किन्तु भाव हिंसा कषाय भाव के साथ ही होती है। साधु के लिए द्रव्य हिंसा से बचने की अपेक्षा भाव हिंसा से बचने का उपक्रम अधिक करना चाहिए। जिनके लिए द्रव्य हिंसा का त्याग नहीं है, वह द्रव्य हिंसा से दूर होकर भाव हिंसा में कमी लाते हैं, किन्तु जिनके लिए द्रव्य हिंसा का पूर्णतः आजन्म त्याग है, उन साधु-साध्वियों को भाव हिंसा से बचने का ही अभ्यास करना चाहिए।
सहधर्मी साधु के यश को सहन न करने से यह भाव हिंसा बढ़ती है। ऐसे में अपने मन को अध्यात्म भावना से ओत-प्रोत करके मन के कालष्य को धोना चाहिए। राजवार्तिक में नीच गोत्र के आस्रव के कारण में यही भाव