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में उत्पन्न हुए हैं परन्तु आत्मज्ञान के बिना सुख नहीं मिला है, इसलिए पहले आत्मज्ञान की बात समझो।
इस तरह से अंगूर खट्टे दिखाकर लोमडी लोगों को रोकने लगी। जब लोग रुककर उसके पास इकट्ठे हो गए तो वही दूसरा रास्ता दिखाने लगी और अपना ज्ञान बांटने लगी।
भोले भाले आत्मन् ! जरा सुनो, समझो, विचार करो। किसी भी रास्ते पर यदि हम दुर्घटना ग्रस्त लोगों की संख्या का सर्वे करें तो पायेंगे कि दस साल में ही इस रास्ते पर सैकड़ों लोग दुर्घटनाग्रस्त हुए हैं। यदि हम यह संख्या मात्र दिखाकर दूसरे लोगों को डराते रहें तो अपनी ही नासमझी होगी। जो मर गये, लुट गए उनकी ओर क्यों देखते
? जो उस रास्ते से कितने बार निकले हैं और रास्ता पार किये हैं उनकी संख्या तो कई हजार गुनी, मरने वालों की संख्या से आएगी। इसी तरह मोक्षमार्ग पर समझना। यह मार्ग तो अनादि काल से चला आ रहा है। अनन्त काल इस मार्ग को हो गया है, यदि ऐसे मनियों की संख्या भी लगाई जाय तो वह अनन्त आ गई, इसमें क्या बडी बात है? आखिर, सिद्ध भी इसी मार्ग से हुए हैं उनकी संख्या भी इसी काल में अनन्तानन्त है। इन मुनियों में दोनों प्रकार की संख्या है- अभव्य और भव्य। जो अभव्य होने के कारण सिद्धत्व पद प्राप्त नहीं किये उसमें उनकी कोई गलती ही नहीं हैं। वे तो उसके योग्य थे ही नहीं, फिर भी वे चल दिये और चलते-चलते इतनी ऊँचाई तक पहँच गए जहाँ कि कोई भी आत्मज्ञानी श्रावक कभी नहीं पहँच सकता। नौवां ग्रैवेयक बहत ऊँचा स्वर्ग है। इतना पण्य का संचय मुनि बने बिना नहीं हो सकता है। इन मुनियों की तो इसमें कोई गलती नहीं क्योंकि आत्मा की इस योग्यता का ज्ञान किसी को नहीं होता है कि हम भव्य हैं या अभव्य हैं। इन अभव्य मुनियों की खिल्ली उड़ाने की बजाय हमें यह सोचना चाहिए कि धन्य हैं, ऐसे जीव, जिन्होंने अपनी जितनी योग्यता थी उतनी क्षमता का पूरा उपयोग कर लिया। इससे ज्यादा सुख तो इन्हें किसी भी पर्याय में मिल ही नहीं सकता है। हमें इस परिणति पर दया आना चाहिए कि अभव्य जीवों को कभी मोक्ष सुख नहीं मिल सकता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी गाड़ी में पेट्रोल डालकर अपने लक्ष्य की ओर दिल्ली की ओर चला जा रहा है और उसके पास गाड़ी का लायसेंस नहीं है, ड्रायविंग का लायसेंस नहीं है। रास्ते में पकड़ा गया, उसे जेल हो गई। अभव्यों की स्थिति भी ऐसी ही है। ये बिना लायसेंस के यात्रा करते हैं। इन्हें द्रव्यलिंगी मुनि कहा जाता है। हम ऐसे लोगों के बारे में भी पाजीटिव सोचें। सही सोच से ही असफलता का सही कारण ज्ञात होता है।
भव्यों में दो प्रकार के मुनि होते हैं। एक भोगार्थी, दूसरे आत्मार्थी । ख्याति, पूजा, लाभ के लोभ में अनेक भव्य जीव भी दीक्षित होते हैं। उनकी प्रत्येक क्रिया भोग निमित्तक होती है इसलिए उन्हें मोक्ष नहीं मिल पाता है। ऐसे जीवों के लिए यही कहा जा सकता है कि अभी उनके सम्यक् पुरुषार्थ करने की काललब्धि नहीं आ पाई है। दूसरे ऐसे भव्य जीव हैं जो भोगों की इच्छा के बिना आत्मसिद्धि के लिए निर्ग्रन्थ पद धारण करते हैं। इन दोनों में से किसी की बाह्य परिणति को देखकर हम मात्र एक स्थूल अनुमान लगा सकते हैं। कम से कम जिनका आचरण मूलाचार के अनुसार समीचीन नहीं हो रहा है उन्हें द्रव्यलिंगी कहा जा सकता है पर हर किसी को नहीं। द्रव्यलिंग
और भावलिंग में इतना सूक्ष्म आन्तरिक परिणमन है कि यह किसी को जानने में क्या, खुद उस मुनि को भी समझ में नहीं आता है।
इन भव्य श्रमणों की परिणति को भगवान् सर्वज्ञ ही जानें । केवली की वाणी में आया है कि भावसंयम कोई भी जीव अधिक से अधिक बत्तीस बार ही ग्रहण करता है, इससे अधिक नहीं। इससे यही सिद्ध होता है कि भव्य