Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 129
________________ हे मोक्ष पथगामी निजात्मन् ! यदि आज द्वादशांग का पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है तो भी कोई बात नहीं है। यदि अंग-पूर्वो का ज्ञान नहीं है तो भी कोई बात नहीं है। हमारा सौभाग्य है कि पूर्वाचार्यों का ज्ञान आज भी हमें मिला है। उसी जिनवाणी का अंश हमारे पास है जिसका पान पूर्वाचार्यों ने किया है। अमृत का समुद्र नहीं है तो कोई बात नहीं उसकी एक बूंद भी आत्मसात् करने का हमारे पास क्षयोपशम नहीं है। यदि है भी, तो भी कितने लोग उस ज्ञान को आत्मसात् कर पाते हैं। श्रीधवल, जयधवल और महाधवल का पूर्ण ज्ञान होना भी बहुत पुण्य के उदय में सम्भव है। ध्यान रखना! ज्ञान का पाचन संयम के माध्यम से ही होता है। लोग ज्ञान प्राप्ति करने के लिए तीव्र लालसा रखते हैं किन्तु संयम नहीं रहने से वह ज्ञान हानि पैदा करता है। हमारे पास थोड़ा ही ज्ञान सही किन्तु वह भी ख्याति, पूजा, लाभ से निरपेक्ष हो तो आत्मोन्नति का कारण बनता है। देव लोग तो ज्ञानी, तपस्वी, संयमी के चरणों की आराधना करके अपने को धन्य मानते हैं और तुम संयमी बनकर देवता की सिद्धि के लिए मन्त्र, तन्त्र की उपासना में लग रहे हो, इससे कोई लोकोपकार नहीं होगा। अपना अपकार करके दुनिया का उपकार करना कौन सी बुद्धिमानी है? मन्त्र, तन्त्र करने से अपना आत्महित तो कुछ होता नहीं है और लोक लुभावने के लिए अपने संयम की बलि चढ़ाना तो अज्ञानता है। यदि कहो कि परोपकार में आत्म उपकार निहित है सो भैया! परोपकार के तो और भी तरीके हैं। मन्त्र, तन्त्र से तो आदमी पराश्रित ही बना रहता है उसे देव-शास्त्र-गुरु की समीचीन श्रद्धा से वंचित ही रहना पड़ता है। ऐसा परोपकार किस काम का जिससे अपनी समाधि भी बिगड़ जाय। हे मुनीश्वर ! क्या पहले कहे हुए इस विद्या सिद्धि के प्रसंग से अपने को शिक्षा नहीं लेनी चाहिए। इतने तपस्वी महामुनीश्वर भी जब विद्या देवता को स्वीकार कर लेते हैं तो उनके महाव्रत नष्ट हो जाते हैं। आचार्य श्री वीरसेन जी लिखते हैं कि- 'भंग महव्वदो होइ।' अपने महाव्रतों को भंग करके दूसरे का उपकार कितना सा होगा? लोग तो तुम्हें महाव्रती समझकर पूजते हैं, आहार देते हैं, जयकार करते हैं और तुम भीतर से व्रतभंगी हो। ऐसा करने से तो इस नग्न रूप को बेचकर अपना जीवन चला रहे हो, यही कहना पड़ेगा। केवल बाह्य नग्नता धारण करके तुम जैन गरु की पहिचान पाते हो और भीतर से तुम्हारा उद्देश्य लोक लभावने का है तो तुम तो उस अभव्य से भी गयेबीते हो गए जो अभव्य मुनि कम से कम तपस्या करके इतना पुण्य तो अर्जित कर लेता है कि आगामी भव में अन्तिम ग्रेवेयक के महासुख को भोग लेता है। जैसे विद्या सिद्धि के लिए मन्त्र तन्त्र किया जाता है वैसे ही तुम परोपकार के लिए कर रहे हो। गृहस्थ के लिए मन्त्र तन्त्र आराधना सर्वथा वर्जित नहीं है किन्तु मुनि के लिए तो सर्वथा वर्जित है। क्षुल्लक महाराज तक ही विद्या सिद्धि का परिग्रह अपने पास रख सकते हैं, मुनि महाराज तो कदापि नहीं। मन्त्र के द्वारा देवताओं की सिद्धि करना बहुत बड़ा परिग्रह रखना है। अपरिग्रह महाव्रतिन् ! क्या यह चेतन परिग्रह तुम्हें निश्चिन्त रहने देगा? जीना तो दूर ढंग से मरने भी नहीं देगा। इसलिए परिग्रह पाप से बचो। आचार्य कुन्दकुन्द देव इसीलिए कहते हैं कि बाल के अग्रभाग बराबर परिग्रह रखने वाला भी श्रमण निगोद वास को या निम्न गति को प्राप्त होता है। दूसरों की थोड़ी दुकान चल भी जाय, लड़के-बच्चे हो जाय या विवाह-शादी हो जाय तो इन संसार वृद्धि के कार्यों में सहयोग करके तुम उनके ऊपर कौन सा उपकार कर रहे हो? और उस उपकार के बदले में अपनी गति बिगड़ जाय, निगोद में जाना पड़े तो कौन सा फायदे का सौदा हुआ?

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