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मुश्किल हो जाता है। अगर किराएदार व्यसनी हो, चोर-उचक्कों को घर में बुलाता हो, तब तो मकान मालिक सज्जन है तो ऐसा भी हो सकता है कि वह किराएदार बनकर रहे और किराएदार मकान मालिक बनकर रहे। ऐसा ही हे आत्मन् ! अपने साथ हुआ है, सबके साथ हुआ है। आत्मा में कर्मों का कब्जा अनादिकाल से है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त शक्ति, न जाने ऐसे कितने अनन्त गुण आत्मा के इन कर्म चोरों ने लूट लिए हैं। आत्मा बहुत सीधा-सज्जन है और कर्म दुष्ट-दुर्जन हैं । आत्मा का स्वतन्त्र स्वभाव है किन्तु कर्म के कारण परतन्त्र हुआ है। अनादिकालीन इस गहरी, जगी हए कर्मों की पैठ को हटाना बहुत साहस का काम है।
इन चार महाद्वारों के नाम सुनो! पहला महाद्वार है मिथ्यात्व, दूसरा महाद्वार है कषाय, तीसरा महाद्वार है अविरति और चौथा महाद्वार है योग।
कहीं-कहीं प्रमाद को भी स्वीकारा जाता है, सो यह प्रमाद अविरति या कषाय में ही अन्तर्भूत हो जाता है।
प्रत्येक महाद्वार के कई उपद्वार हैं। मिथ्यात्व के पाँच उपद्वार हैं। एकान्त मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व और विपरीत मिथ्यात्व।
दूसरे महाद्वार के पच्चीस उपद्वार हैं। अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ(४), अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ (४), प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ(४), संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ(४), हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ये नौ (९) नोकषाय।
तीसरे अविरति द्वार के बारह भेद हैं। छह प्रकार का प्राणीअसंयम, छह प्रकार का इन्दिय असंयम।
योग के पन्द्रह उपभेद हैं। चार प्रकार का मनयोग, चार प्रकार का वचन योग और सात प्रकार का काययोग।
ये सभी मिलकर सत्तावन(५७) भेद होते हैं। आस्रव तत्त्व के इन कारणों से ही बन्ध होता है। वह बन्ध प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के भेद से चार प्रकार का होता है।
ज्ञानावरण आदि प्रकृति के रूप में कर्म पुद्गलों का परिणमन होना प्रकृतिबन्ध है। उन कर्म प्रकृतियों का एक निश्चित काल तक आत्मा में रहना स्थिति बन्ध है। उन कर्म के प्रदेशों की संख्या प्रदेश बन्ध है और कर्म के फल देने की शक्ति का नाम अनभाग बन्ध है।
इस आस्रव और बन्ध को रोकने का काम संवर के द्वारा होता है। आस्रव की तरह संवर के भी सत्तावन भेद हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, बारह भावना और बावीस परीषह इन भेदों से आस्रव के सभी द्वार रुक जाते हैं । संवर होने पर ही कर्म की निर्जरा मोक्षमार्गोपयोगी होती है। इस संवर पूर्वक निर्जरा की अविरल गति बनी रहने से मोक्ष तत्त्व उद्घाटित होता है। मोक्ष ही शुद्ध जीव तत्त्व की उपलब्धि है। इसलिए सर्व प्रकार से उपादेय जीव तत्त्व ही है।