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निर्विकल्पता की भावना रहती है वह दूसरे मुनि के प्रति भी सम्यक् भावना रखता है। मुनि के ध्यान में उसका चित्त रहता है। ऐसा साधक अपनी आत्मा में तृप्त होता है और पर पदार्थों में तृप्ति से रहित होता है। ऐसा साधक संसार से अनासक्त हुआ सभी साधकों में अद्भुत होता है।
९. वेज्जावच्च भावणा
देह को एकान्त से अशुचि मानने पर वैयावृत्य असंभव है
ओदारिओ हि देहो अचेयणो पूदिगंधचम्मजुदो । एयंतेण दु मण्णइ वेज्जावच्चं कधं होदु ॥ १ ॥
यह शरीर तो रहा अचेतन दुर्गन्धित है अशुचि निधान चर्म मात्र से शोभ रहा है भीतर रुधिर - मांस-मल खान । यदि नितान्त एकान्त रूप से ऐसा तन तू मान रहा फिर तू वैयावृत्य करे क्यों क्या चेतन पहचान रहा ? ॥१ ॥
अन्वयार्थ : [ ओदारिओ देहो ] औदारिक शरीर [हि ] निश्चित ही [ अचेयणो ] अचेतन है [ पूदि-गंधचम्मजुदो ] जो दुर्गंध और चर्मयुक्त है [ एयंतेण ] एकान्त से [ मण्णइ ] ऐसा मानता है [ दु] तो [ वेज्जावच्चं ] वैयावृत्ति [ कधं ] कैसे [ होदु ] होवे ।
भावार्थ : मनुष्य का शरीर औदारिक शरीर है । औदारिक शरीर हाड़, मांस, मल-मूत्र, खून आदि अपवित्र पदार्थों से ही बना होता है। यह शरीर अचेतन है । ऐसी स्थिति में इस शरीर की सेवा करने से क्या होगा ? सेवा तो चेतन आत्मा की होनी चाहिए जो शुद्ध, निर्मल है। इस तरह जिसकी मान्यता एकान्त रूप से है वह वैयावृत्य क्यों करे ? इस एकान्त मान्यता से वैयावृत्य कैसे हो ?
उपर्युक्त प्रश्न का समाधान
तम्हा तवोधणाणं रयणत्तयेण णिच्च- पवित्ताणं । वेज्जावच्चं कज्जं रयणत्तय- दिव्वलाहत्थं ॥ २॥
भूल रहा तू जो मुनि जन हैं रत्नत्रय से नित्य पवित्र तपोधनों का तन चेतन संग पूज्य बना ज्यों पट संग इत्र । रत्नत्रय के दिव्य लाभ की हो इच्छा यदि तुमको मित्र तो तुम मुनितन सेवा करना पा लोगे जिनदेव चरित्र ॥ २ ॥