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[धम्मो ] धर्म [धम्मिगं] धार्मिक के [ समासेदि] आश्रय से रहता है।
भावार्थ : वैयावृत्ति के लिए जो साधु अन्य साधु जन को छोड़ देता है। या जो साधु सहधर्मी साधु की सेवा करने से बचता है वह अपने आत्म धर्म को छोड़ देता है। सेवा आत्मा का अपना धर्म है। सेवा करने से जो वंचित रहता है वह अपने आत्म धर्म को छोड़ देता है। चूँकि धर्म धर्मी के आश्रित होता है इसलिए धार्मिक की सेवा करना वस्तुतः अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र की आराधना करना है।
वैयावृत्य तप की पूज्यता दिखाते हैं
वेज्जावच्च-तवो खलु महागुणो चित्तसुद्धिकरो पुज्जो। किण्हेण जेण बद्धं तित्थयरं णामकम्म सुहं॥६॥
वैयावृत्य महागुणकारी तप है पूज्य बनाता है चित्त विशुद्ध करे तपसी का निज-पर का हितदाता है। नारायण श्रीकृष्ण गृही ने औषधि देकर कर सेवा तीर्थंकर पद बन्ध किया है तीन लोक को सुख-देवा॥६॥
अन्वयार्थ : [ वेज्जावच्च तवो ] वैयावृत्य तप [ खलु ] निश्चय से [ महागुणो ] महान् गुणकारी [ चित्तसुद्धिकरो] चित्त की शुद्धि करने वाला [ पुज्जो ] और पूज्य है [ जेण] इस तप से [ किण्हेण ] कृष्ण ने [ तित्थयरं] तीर्थंकर [णामकम्म सुहं ] शुभ नाम कर्म [ बद्धं ] बांधा था।
भावार्थ : वैयावृत्य करना एक तप है। तप में भी अन्तरङ्ग तप है। अन्तरङ्ग तप होने से निश्चित ही यह महान् उपकारी है। कर्म की साक्षात् निर्जरा का कारण होने से यह आत्मा को गुणकारी है। इस तप से चित्त शुद्धि होती है। यह तप पूज्य है। इसकी आराधना करने वाला जीव जगत् में पूजा सम्मान के योग्य हो जाता है। इस तप से गृहस्थ दशा में श्री कृष्ण ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था। नाम कर्म में अत्यन्त शुभ यह तीर्थंकर कर्म है जिसे श्री कृष्ण ने मुनि महाराज को औषधिदान देकर आत्मा में बांधा था। निर्दोष वैयावृत्य का यह महान् फल है कि अविरत दशा में श्री कृष्ण ने इस भावना से आगामी भव में तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त किया है।
शरीर सेवा ही चित्त शुद्धि का कारण है
देहस्सिदो हि दीसदि जीवाणं सव्वचित्तपरिणामो। चित्तविसोहिं जाण हु तणसेवाकारणेण पुणो॥७॥
भावचित्त में जो आते हैं देहाश्रित ही दिखते हैं क्लेश, विशुद्धि, सुख, दुख, समता पर आश्रित फल रखते हैं।