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भक्ति[भव-वड्रिविसं] भव वृद्धि के विष को [ मंतस्स इव] मंत्र के समान [ह] निश्चित ही [थंभइ] स्तम्भित कर देती है [विसेसो ण मंतव्वो ] इसमें कोई विशेष नहीं मानना चाहिए।
भावार्थ : जैसे मन्त्र शक्ति से विष वृद्धि रुक जाती है और चढ़ा हुआ जहर उतर जाता है इसमें कोई विशेष बात नहीं है क्योंकि मन्त्र का प्रभाव ही ऐसा होता है उसी प्रकार जिनेन्द्र प्रतिमा में जिनेन्द्र भगवान् की श्रद्धा से भक्ति करना भव वृद्धि के कारणभूत मोह विष को रोक देती है और निष्कासित कर देती है। इस भक्ति के प्रभाव से ऐसा हो जाना कोई विशेष आश्चर्य नहीं है क्योंकि जिनेन्द्र प्रतिमा का यह माहात्म्य सहज है। सेठ धनंजय ने अपने पुत्र को सर्प के विष से निर्विष इसी भक्ति, पूजा के प्रभाव से किया था।
अरिहंत भक्ति बिना दाम के मूल्यवान पदों को देती है
चउतीसातिसयाणं अट्ठ महापाडि हे रजुत्ताणं। अरिहंताणं भत्ती अमुल्लेण मुल्लपददायी॥ ४॥
हुए सुशोभित समवसरण में तीस चार अतिशय वाले अष्ट प्रातिहार्य की शोभा देख सभी हों मतवाले। उन अरिहंत परम जिनवर की भक्ति महा अतिशयकारी बिना मूल्य बहुमूल्य पदोंको सहज दिलाती सुखकारी॥४॥
अन्वयार्थ : [चउतीसातिसयाणं] चौंतीस अतिशय वाले [अट्ठमहापाडिहेर-जुत्ताणं] अष्ट महा प्रातिहार्यों से सहित [अरिहंताणं] अरिहंतों की [ भत्ती] भक्ति [अमुल्लेण ] बिना मूल्य के [ मुल्लफलदायी ] मूल्यवान फल को देने वाली है।
भावार्थ : जिन अरिहंतों ने महान् तपस्या के द्वारा तीर्थंकर पद प्राप्त किया है उनके चौंतीस अतिशय और अष्ट प्रातिहार्य बाहर से जानने में आ जाते हैं। इन अतिशयकारी गुणों से आकृष्ट होकर जो प्राणी अरिहंतों की भक्ति करता है उसे भक्ति मात्र करने का ही श्रम होता है। बदले में उसे अरिहंत पद की प्राप्ति हो रही है तो यह बहुत ही लाभदायी और सस्ता-सहज उपाय है। ऐसे उपाय को प्राप्त करने से जो वंचित रह जाय वह प्रमादी और मूर्ख नहीं तो और क्या
अरहंत भक्ति के विषय में श्रीधवला में लिखा है कि- “जिन्होंने घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान में सम्पूर्ण पदार्थों को देख लिया है वे अरहन्त हैं । अथवा आठों कर्मों को दूर कर देने वाले और घातिया कर्मों को नष्ट कर देने वालों का नाम अरहन्त है, क्योंकि कर्मशत्रु के विनाश के प्रति दोनों में कोई भेद नहीं है।" अर्थात् अरहन्त शब्द का अर्थ चूँकि 'कर्म शत्रु को नष्ट करने वाला' है अत:एव जिस प्रकार चार घातिया कर्मों का नष्ट कर देने वाले
र अयोगी जिन 'अरहन्त' शब्द के वाच्य हैं, उसी प्रकार आठ कर्मों को नष्ट कर देने वाले सिद्ध भी 'अरहन्त' शब्द के द्वारा कहे जा सकते हैं। उन अरहन्तों में जो गुणानुराग रूप भक्ति होती है वही अरहन्त भक्ति