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है। भक्ति में रुचि भगवान् के माहात्म्य का वर्णन करके दिखाता है। जो पूजा, अभिषेक, विधान की महिमा से भव्यों को आकृष्ट करता है वह जीव लोक में उत्तम कीर्ति को प्राप्त करता है। उस पुण्य आत्मा को जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति क्या-क्या नहीं देती? अर्थात् सब कुछ देती है।
भगवद्भक्ति की महिमा का उपसंहार करते हुए कहते हैं
देहप्पभेदंकर णाण सत्तिं पावेदि जीवो कमसो दु मुत्तिं । जिणिंद-भत्तो वसगो सुहेण णिधत्तिकम्माणि णिहंति जेण॥ ८॥
देह-आत्म के भेद ज्ञान की शक्ति मिले जिन भक्ती से निज इन्द्रिय को वश में रखकर कर्म हने निज शक्ती से। कर्मों की जो शक्ति निकाचित औ निधत्ति भी विनश रही सब जप-तप से बढ़कर भक्ति अचरज रखकर विलस रही॥८॥
अन्वयार्थ : [जिणिंद भत्तो] जिनेन्द्र भक्त [ जीवो] जीव [ देहप्पभेदंकर-णाण सत्तिं] देह, आत्मा में भेद करने वाली ज्ञान शक्ति को [ पावेदि] प्राप्त करता है [ वसगो] जितेन्द्रिय हुआ [जेण] चूँकि [ सुहेण] सुख से [णिधत्तिकम्माणि ] निधत्ति कर्मों को [णिहंति ] नष्ट करता है [ दु] इसलिए तो [कमसो] कम से [ मुत्तिं] मुक्ति प्राप्त करता है।
भावार्थ : शरीर और आत्मा का भेद विज्ञान करने की शक्ति अरिहंत भक्ति से ही आती है। निरन्तर भगवान् की स्तुति, ध्यान करने से यह विचित्र सामर्थ्य भव्यात्मा को प्राप्त होती है। जिसे भेदविज्ञान होता है वही इन्द्रियों को वश में कर सकता है। वही जितेन्द्रिय होता है। निधत्ति, निकाचित कर्म का क्षय जिनेन्द्र भक्ति से ही होता है। ऐसा आत्मा सुख से क्रमशः मुक्ति को प्राप्त करता है। कहा भी है'जिणबिंबदसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स रवयदंसणादो'
श्री धवला ६/४२७ अर्थात्- जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्ति, निकाचित मिथ्यात्वादि कर्म समूह का नाश देखा जाता है।
निधत्ति और निकाचितपना कर्म का एक विशिष्ट परिणमन है। कर्म जिस समय आत्मा में बंधते हैं तभी कुछ कर्म परमाणुओं में यह बन्ध हो जाता है। जो कर्म परमाणु बंधने के बाद उदीरणा और संक्रमण के अयोग्य होते हैं उन्हें निधत्ति संज्ञा से कहा जाता है। जो कर्म परमाणु उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण और उत्कर्षण इन चारों ही करणों के अयोग्य होते हैं वह निकाचित संज्ञा से कहा जाता है।