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जिणभत्तीए विणा ण हि सम्मत्तं बोही समाही य। णग्गो कह सो भिक्खू चदुगइ दुक्खं णिवारेइ ॥६॥
श्री जिनवर की भक्ति बिना तो सम्यग्दर्शन नहीं रहे रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं तो कहो समाधि कहाँ रहे ? बोधि समाधि बिना वह दीक्षित नग्न मात्र हो क्या पाए ? चतुर्गति का दुःख निवारण कैसे भिक्षू कर पाए? ॥६॥
अन्वयार्थ : [जिणभत्तीए] जिनभक्ति के [विणा] बिना [सम्मत्तं] सम्यक्त्व [ बोही ] बोधि [य] और [समाही ] समाधि [ ण हि ] नहीं होती है [ सो भिक्खू] वह भिक्षु [ णग्गो ] नग्न मात्र होकर [ चदुगइ-दुक्खं] चार गति के दु:खों को [ कह ] कैसे [णिवारेइ ] दूर करेगा?
भावार्थ : सम्यग्दर्शन की पहचान जिनेन्द्र भक्ति है। जो अरिहंत भगवान् की भक्ति में तत्पर नहीं रहता है वह साधु हो या श्रावक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है। रत्नत्रय की प्राप्ति होना बोधि है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति जिनेन्द्र भक्ति से अर्जित पुण्य के बिना कदापि संभव नहीं है । रत्नत्रय का परभव में ले जाना समाधि है। जो जिनभक्ति से दूर है उसकी समाधि से मृत्यु नहीं हो सकती है। समाधि के बिना परभव में कैसे उसे सुख मिलेगा? जो भिक्षु मात्र नग्न होकर रहता है और जिन-भक्ति के बिना रहता है वह चार गतियों के दुःख दूर नहीं कर सकता है। ऐसा साधु पुन: पुन: इसी संसार में भ्रमण करता है।
जिनभक्ति क्या-क्या नहीं देती?
जो कुणदि सयं भवियो अण्णं वि कारयदि जिणभत्तिरुई। सो लहदि लोगकित्तिं किं किं ण हु देदि जिणभत्ती॥७॥
भव्य जीव जो जिन भक्ति में सहज रुची को रखता है
और अन्य को उसी भक्ति में रुची करा हर्षाता है। ऐसा पुण्यवान ही प्राणी तीन लोक में कीरत पा क्या-क्या सुफल नहीं देती है भक्तों को जिनदेव कृपा॥७॥
अन्वयार्थ : [जो भवियो] जो भव्य [ सयं] स्वयं [जिणभत्तिरुइं] जिनभक्ति में रुचि [ कुणदि] करता है [अण्णं वि] अन्य को भी [कारयदि] कराता है [ सो] वह [लोगकित्तिं] लोक में कीर्ति को [ लहदि] प्राप्त करता है [ जिणभत्ती ] जिन भक्ति [ किं किं ] क्या-क्या [ण हु] नहीं [ देदि] देती है।
भावार्थ : भव्य जीव स्वयं जिनेन्द्र भगवान् में अतिशय भक्ति रखता है और अन्य जीवों को उसी भक्ति में लगाता