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जैसे महापुरुष मोक्ष पधारे हैं। भरत चक्रवर्ती तो समवसरण में जाकर भगवान् ऋषभदेव की उपादेय बुद्धि से भक्ति करते थे। वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर भी त्रेसठ श्लाका पुरुषों के पुराण विस्तार के साथ सुनते थे। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपने परिणामों को संवेग-वैराग्यमय त्रेसठ श्लाका पुरुषों के चरित्र-कथानक पढ़कर, सुनकर ही बनाता है। भरत चक्रवर्ती ने चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिदिन निरन्तर वन्दना के लिए अपने महल के द्वारों पर शिर का स्पर्श करने वाली वन्दनमालाएँ बंधवायी थी। इन द्वारों से घण्टियों की आवाज सुनकर भरत को चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण हो आता था। वह उन्हें परोक्ष नमस्कार करते थे।
हनुमान ने सुमेरु पर्वत पर स्थित जिनालयों की एक दिन बहुत भक्ति की। सभी अकृत्रिम जिनालयों की भक्ति करके जब वह लौट रहे थे तो मार्ग में रुक गए। रात्रि में ही आकाश में विलीन होती हुई उल्का देखकर उन्हें वैराग्य हो गया। सुबह उठते ही वह अपने परिवार को छोड़कर भरत क्षेत्र में आकर जिनदीक्षा धारण कर लिए।
इसलिए जिनभक्त! सदैव भगवान् की भक्ति अत्यधिक अनुराग के साथ कर। यह अनुराग परम्परा से मुक्ति का कारण है। इसे प्रशस्त राग कहते हैं। इस प्रशस्त राग से मति में मोह उत्पन्न नहीं होता किन्तु मोह का सर्वथा नाश होता है। एक अनादि मिथ्यादृष्टि सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है तो जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के परिणामों की विशुद्धि से ही प्राप्त करता है। इसके बाद वेदक सम्यग्दृष्टि भी तभी तक रहता है जब तक उसके चित्त में जिन चरणकमल की या जिनवचनों की भक्ति विद्यमान है। ऐसा वेदक सम्यग्दृष्टि प्रशम, संवेग आदि भावों से सहित होता है। वह वेदक सम्यग्दृष्टि जब क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है तब भी जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से अपनी भावना को विशेष रूप से बढ़ाता है। श्री राजवार्तिक ग्रन्थ में उसे 'जिनेन्द्रभक्ति प्रवर्धित विपुल भावना विशेष संभारः' इस विशेषता से क्षायिक सम्यग्दर्शन के अभिमुख क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि की भावना बताई है। ऐसा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि ही जहाँ केवली भगवन्त होते हैं, वहाँ मोह का क्षपण प्रारम्भ करता है। यदि वह क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि व्रती श्रावक भी बनता है तो भी वह अपनी विशुद्धि बढ़ाता है। विशुद्धि से कषाय का क्षयोपशम होता है। यह विशुद्धि भी बढ़ाने के हेतु श्री राजवार्तिक में लिखे हैं- 'जैनेन्द्र पूजा-प्रवचनवात्सल्य-संयमादि प्रशंसादिपरतया' अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, प्रवचन वात्सल्य की भावना और संयम आदि गुणों की प्रशंसा में तत्पर होने से ही इस प्रकार की विशुद्धि बढ़ती है जो संयमासंयम नाम का पाँचवा गुणस्थान प्राप्त करा देती है।
जिनेन्द्र भक्ति से विष दूर होना कोई आश्चर्य नहीं
मंतस्सेव हुथंभइ जिणपडिमाभत्ती भवडिविसं। मंतव्वो सदाए जिणिंददेवस्स विसेसो ण॥३॥
दूर रहे अरिहन्त देव की भक्ति का माहात्म्य यहाँ उनकी प्रतिमा की भक्ति भी भव वृद्धि को रोक यहाँ। ज्यों विषनाशक मन्त्र शक्ति से विष तन का हो दूर अवश्य त्यों श्रद्धा से श्री जिनेन्द्र की मोहमहा विष हरेअवश्य॥३॥
अन्वयार्थ : [जिणिंद-देवस्स] जिनेन्द्र देव की [सहाए] श्रद्धा से [जिण-पडिमाभत्ती] जिन-प्रतिमा की