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तन सेवा से हो प्रसन्न मन शल्य छोड़ बनता है शान्त इसीलिए यह वैयावृत्ति क्षपक चित्त करता निर्धान्त ॥ ७॥
अन्वयार्थ : [जीवाणं] जीवों का [ सव्वचित्तपरिणामो] चित्तगत समस्त परिणाम [ देहस्सिदो] देहाश्रित [हि] ही[दीसदि] देखा जाता है[ पुणो हु] पुनः[तणसेवा कारणेण] शरीर सेवा के कारण से[चित्तविसोहिं] चित्त की विशुद्धि को [ जाण] जानो।
भावार्थ : जीवों को संक्लेश या विशुद्ध परिणाम, जो मन में उत्पन्न होता है, वह शरीर के कारण ही होता है। तन में स्वस्थता, अनुकूलता रहती है तो चित्त में संक्लेश, खेद नहीं रहता है और इसके विपरीत स्थिति होने पर दुःख बना रहता है। इसलिए जैसे बने तैसे साधकों के शरीरगत कष्टों को आहार, औषधि, आवास और उपकरण दान के माध्यम से दूर करना चाहिए। इससे अपने आप मन की खेद खिन्नता दूर हो जाती है। साधक को छठवें-सातवें गुणस्थान की विशुद्धि और निर्जरा में सहयोग करना श्रावक और श्रमण दोनों के लिए एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। वैयावृत्ति में ऐसी ही अन्तरङ्ग भावना होनी चाहिए तभी वैयावृत्ति करने वाले को महान् पुण्य बंध होता है। इसलिए अन्तरङ्ग चित्त विशुद्धि की प्राप्ति शरीर सेवा के कारण से होती है, यह स्पष्ट रूप से जानना।
इस भावना का उपसंहार करते हुए कहते हैं
साहुस्स सेवा पमुहो हि धम्मो पयासगो धम्मपहस्स णिच्चं। परप्पपरावेक्खि-जिणिंदवाणी एयंतमग्गे सिवमग्गहाणी॥८॥
करो भावना सेवा की तुम साधू का यह मुख्य धरम धर्म मार्ग को प्रकट दिखाता नष्ट करे अघ अष्ट करम। श्री जिनवर वाणी सिखलाती निश्चय अरु व्यवहार धरम उभय धरमका ध्यान रखोतोकभी नहीं होमन विभ्रम॥८॥
अन्वयार्थ : [साहुस्स ] साधु की [ सेवा ] सेवा [ हि ] निश्चय से [ पमुहो धम्मो ] प्रमुख धर्म है।[धम्मपहस्स] धर्म पथ का [ णिच्चं ] हमेशा [ पयासगो ] प्रकाशक है [ परप्परावेक्खि जिणिंदवाणी ] जिनेन्द्र भगवान की वाणी परस्पर में अपेक्षा रखने वाली है [ एयंतमग्गे ] एकान्त मार्ग पर [ सिवमग्गहाणी ] शिवमार्ग की हानि है।
भावार्थ : साधु की वैयावृत्ति या सेवा ही सभी का प्रमुख धर्म है। यह सेवा ही धर्म पथ को प्रकाशित करती है। सेवा में एक दूसरे की अपेक्षा रहती है। यह अपेक्षा परस्पर में धर्म बढ़ाती है। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए नय जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहते हैं उसी तरह यह वैयावृत्ति धर्म है। मुझे सेवा की जरूरत नहीं है या मैं किसी की सेवा नहीं करूँगा, इस तरह की एकान्त धारणा से मोक्षमार्ग की हानि होगी।