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अपमत्ता जा चरिया मणवयणकायजोगजुत्ताणं । साहूणं सा भणिदा साहुसमाहिभावणा होदि ॥ २ ॥
मनो योग और वचन योग से काय योग से सहित हुआ तीनों योग सहित श्रमणों का सावधान उपयोग हुआ। योग और उपयोग बने जब निश्चल एक लक्ष्य संधान ऐसा साधू सतत भा रहा साधु समाधि भावना जान ॥ २ ॥
अन्वयार्थ : [ मण-वयण - काय - जोग - जुत्ताणं ] मन, वचन, काय योग से अच्छी तरह युक्त रहने वाले [ साहूणं ] साधुओं की [जा] जो [ अपमत्ता ] अप्रमत्त [ चरिया ] चर्या [ भणिदा ] कही है [ सा ] वह [ साहु समाहिभावणा ] साधु समाधि की भावना [ होदि ] होती है ।
भावार्थ : जो साधु अपने मन, वचन, काय को संभालते हुए अप्रमत्त रहते हैं उनकी चर्या / प्रवृत्ति अप्रमत्त कहलाती है । अप्रमत्त का अर्थ है सावधान । भीतर की कषाय का उद्रेक न होना अन्तरङ्ग की सावधानी है। बाहर से मन, वचन, काय की चेष्टाएँ संयत होना बाह्य सावधानी है। मन से, वचन से, काय से पाप प्रवृत्ति न होना ही अप्रमत्तता है। जो साधु अपनी आत्मा को पाप प्रवृत्ति से सावधान होकर दूर रखते हैं वह सदैव साधु समाधि भावना में तत्पर रहते हैं । यह भावना स्वयं अपने लिए है। स्वयं अप्रमत्त रहना अपनी आत्मा की समाधि में रहना है। इस से तीर्थंकर प्रकृति का पुण्यबंध होता है।
हे आत्मन्! अपने मन को सावधान रखने के लिए इष्टोपदेश, समाधितन्त्र और ज्ञानार्णव इन ग्रन्थों की कुछ न कुछ पदावली का प्रतिदिन स्मरण करो, पाठ करो । यह ग्रन्थ मन को विशुद्ध बनाए रखने के लिए अद्भुत औषधि हैं। जब भी कभी ऐसी कलुषता उत्पन्न हो जिससे धर्मध्यान में मन न लगे तो इन आचार्यों की बातें याद करो। इन आचार्यों की वाणी अनुभवपूर्ण है। आचार्य पूज्यपाद और शुभचन्द्र जी ने जो ग्रन्थों में वर्णन किया है, वह मात्र परम्परागत वर्णन नहीं है, उसमें जीवन के जीवन्त बहुमूल्य अनुभव हैं।
आचार्य पूज्यपाद देव भी कहते हैं कि तपस्वी को भी मोह के कारण राग-द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं । उन रागद्वेष को दूर करने के लिए तत्क्षण साम्य भावना करें और उन तरंगों को शान्त कर लें ।
साधक ! भयभीत मत होओ। यह भी नहीं विचारना इस तरह के राग, द्वेष से गुणस्थान गिर जाता है या भाव लिंग छूट जाता है। आत्मा में एक समान विशुद्धि कभी नहीं रहती है। कितना ही नोकर्म से दूर रहो, पर सम्पर्क से दूर रहो तो भी सदैव एक समान विशुद्धि और उत्साह नहीं बना रहता है क्योंकि कर्मोदय का आत्मा पर प्रभाव पड़ता है। साधक वही होता है जो इन कर्मोदय को बहुत शीघ्र अपने चिन्तन से परिवर्तित कर देता है। जो इस तरह अभ्यास करता है वही स्वस्थ रहता है । स्व में स्थित रहना ही स्वास्थ्य है । जिसका मन स्वस्थ है उसका तन भी स्वस्थ रहता है। जिसके मन में क्षोभ उत्पन्न हुआ उसको अपमान-सम्मान की भावना उत्पन्न हुई । जिसका मन राग, द्वेष से आहत नहीं होता है वह अपमान-सम्मान से परे रहता है ।