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साहुस्स जस्स णत्थि हिंसा-कालुस्स-मोह-मच्छरियं। तव्वयणं खलु भणिदं पासुग-परिच्चागदा णाम॥७॥
जिसके मन में नहीं निवसती हिंसा और मोह की खान नहीं रहे मात्सर्य भाव भी नहीं कलुषता औ अज्ञान। उस साधु के वचन कहे हैं ज्ञान दान शिव का आधार वही रहा प्रासुक परित्यागी पर निरपेक्ष दया आधार॥७॥
अन्वयार्थ : [जस्स] जिस [ साहुस्स] साधु के पास [ हिंसा-कालुस्स-मोह-मच्छरियं] हिंसा, कालुष्य, मोह और मात्सर्य [णत्थि] नहीं होता है [ तव्वयणं] उनके वचन [खलु] निश्चित ही [पासुग परिच्चागदा णाम] प्रासुक परित्याग के नाम से [भणिदं] कहे हैं।
भावार्थ : जिस साधु के चित्त में हिंसा का भाव नहीं आता है। कृत, कारित, अनुमोदना से जो हिंसा से दूर है। द्रव्य हिंसा का अभाव होने से पाप बन्ध से जो मुक्त है। साथ ही भाव हिंसा की परिणति से जो रहित है। कालुष्य, मोह
और मात्सर्य ये भाव हिंसा की परिणति हैं। कलुषता से रहित, मोह भाव से रहित और मात्सर्य अर्थात् ईर्ष्या से जो रहित है उसका चित्त निर्मल है। उस साधु के उपयोग की परिणति विशुद्ध रहती है। ऐसे साधु के थोड़े से वचन, किसी भी प्रकार का उपदेश कल्याणप्रद है। ऐसे साधु के मुख से निकला कोई भी वचन प्रासुक परित्याग नाम पाता
इस भावना का उपसंहार करते हुए कहते हैं
एसो दु धम्मो समणस्स मुक्खो गोणेण पालेदि गिहत्थ-धम्मी। ममत्त-मोहस्स-विणासणटुं दाणं सुदेयं खलु गेण्हिदव्वं॥८॥
ज्ञान दान का मुख्य धर्म तो श्रमणराज के योग्य कहा पर गृहस्थ भी इसी धर्म को गौण रूप से पाल रहा। दान-त्याग का मुख्य प्रयोजन ममता मोह विनाशन है पात्र और दाता का संगम धर्म विवर्धन कारण है॥८॥
अन्वयार्थ : [ एसो दु धम्मो ] यह धर्म तो [ समणस्स ] श्रमण का [ मुक्खो] मुख्य है [ गिहत्थधम्मी ] गृहस्थ
को पालन करने वाला [ गोणेण ] गौण रूप से पालेदि] पालता है। ममत्त-मोहस्स ] ममत्व और मोह का [विणासणटुं] विनाश करने के लिए [दाणं] दान [ सुदेयं ] अच्छी तरह से देना चाहिए [खलु ] तथा निश्चय से [गेण्हिदव्वं] ग्रहण करना चाहिए।