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भावार्थ : प्रासुक परित्याग नाम की यह भावना और प्रासुक परित्याग रूप धर्म श्रमणों का मुख्य है। गृहस्थ धर्म को पालने वाला इसका पालन गौण रूप से करता है। यह दान मोह, ममता का नाश करने के लिए किया जाता है तथा इस दान को ग्रहण करने का प्रयोजन भी मोह, ममता का नाश करना है। मुनिराज का उपदेश देना भी मोह रहित होता है। अपने उपदेश से भी मुनिराज ममता नहीं करते हैं। किसी व्यामोह से, किसी राग से किसी के प्रति द्वेष से उपदेश नहीं देना मोह रहित उपदेश है। उस उपदेश को किसी माध्यम से बार-बार सुनना या सुनाना या उसके लिए 'मेरा उपदेश कितना अच्छा था।' ऐसा ममता भाव रखने का अभाव ममता रहित उपदेश है।
इसी तरह श्रावक के द्वारा जो दिया गया दान है, उसे रत्नत्रय का पालन करने में, ध्यान-स्वाध्याय करने के उद्देश्य से ग्रहण करना मोह-ममता रहित दान ग्रहण है। श्रावक भी दान देकर यह सोचता है कि मैं 'मोह-ममता के बन्ध से बच गया।' तो उसका वह दान भी सम्यक्दान है। इस प्रकार देने वाले और ग्रहण करने वाले दोनों ही आत्मा के लिए यह प्रासुक परित्याग की भावना है।
श्रमण का मुख्य धर्म रत्नत्रय का उपदेश देकर ज्ञानदान देना है। श्रावक का मुख्य धर्म चार प्रकार का दान देना है। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं कि
गृहस्थ का मुख्य धर्म क्या है?
गृहस्थ का धर्म शुभोपयोग है या शुद्धोपयोग है? इस जिज्ञासा का स्पष्टीकरण परमात्मप्रकाश की टीका में पृ. २५१ पर इस तरह है- 'शुद्धोपयोग रूपे निश्चयधर्मे व्यवहारधर्मे च पुनः षडवश्यकादिलक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे वा शुभोपयोगस्वरूपे रतिं कुरु।' हे भव्यजीव! निश्चय धर्म शुद्धोपयोग रूप है। यति के लिए वह निश्चय धर्म और षडावश्यक आदि लक्षण वाला व्यवहार धर्म है। यति उन निश्चय और व्यवहार दोनों धर्मों में रति करे। किन्तु गृहस्थ की अपेक्षा दान, पूजा आदि लक्षण वाला शभोपयोग रूप धर्म है। गृहस्थ! उस शभो करो। उस गृहस्थ के लिए शुद्धोपयोग रूप निश्चय धर्म नहीं है। इसी परमात्मप्रकाश ग्रन्थ के पृ. २३२ पर उल्लेख है कि- 'निरन्तर विषयकषायाधीनतया आर्तरौद्र ध्यान रतानां निश्चय रत्नत्रयलक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति।'
अर्थात्-निरन्तर विषयकषाय के अधीन रहने से आर्त ध्यान,रौद्र ध्यान में पड़े हुए गृहस्थों को निश्चय रत्नत्रय लक्षण वाले शुद्धोपयोग रूप परम धर्म का अवकाश(स्थान, ठिकाना) नहीं है।
इससे स्पष्ट है कि शुद्धोपयोग का लक्षण निश्चय रत्नत्रय है। निश्चय रत्नत्रय, अभेद रत्नत्रय एकार्थक हैं। गृहस्थों को यह अभेद रत्नत्रय की प्राप्ति त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है। पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थ के लिए वह अभेद रत्नत्रय सदैव उपादेय है। अभेद रत्नत्रय को लक्ष्य बनाकर वह व्रती गृहस्थ भेद रत्नत्रय की ही सेवा करता है। पृ. २५० पर देखें- 'गृहस्थेनाभेदरत्नत्रय स्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेद रत्नत्रयात्मकः श्रावकधर्म: कर्तव्यः।' यहाँ उपादेय करने के लिए कहा है। उपादेय का अर्थ है- ग्रहण करने योग्य, प्राप्तव्य या साध्य स्वरूप। जैसे कि अन्तरात्मा के लिए परमात्मा उपादेय है किन्तु वह अन्तरात्मा तब तक अन्तरात्मा ही रहता है जब तक कि वह परमात्मा न बन जाये। गृहस्थ के लिए उस अभेद रत्नत्रय को प्राप्त करने की स्थिति तब तक नहीं बनती है जब तक कि वह गृहस्थ रहता है। इसी