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वह दान रत्नत्रय की विशुद्धि के लिए कारण बनता है। यह दान निर्दोष हो, प्रासुक हो तो ही श्रावक के लिए देने योग्य है। श्रावक श्रमण को प्रासुक का ही दान करे। प्रासुक दान करने से वह श्रावक भी कथंचित् इस भावना का लाभ प्राप्त करता है।
श्रावक के लिए तो आहार दान, औषध दान, उपकरण दान और आवास दान ये चार प्रकार के दान कहे हैं। इन दानों में प्रत्येक का महत्त्व बराबर है। चारों ही प्रकार के दान उत्तम पात्र आदि के लिए जब दिए जाते हैं तो उत्तम आदि फल देते हैं। उत्तम पात्र को दिया गया दान उत्तम भोगभूमि का पुण्य फल देता है। उत्तम भोगभूमि उत्कृष्ट फल है। फल में यदि कमी रह जाती है तो विद्याधर मनुष्य भी बन सकता है। पुराण में कथानक आता है कि राजा सुमुख और वनमाला रानी ने एक बार वरधर्म नाम के मुनिराज को आहार दान दिया। आहार द दोनों ने विद्याधर युगल की आयु का बन्ध किया। तदनन्तर वज्रपात से दोनों मरकर विजयार्ध पर्वत पर जन्म लिए। उत्तम भोगभूमि का मनुष्य हो या विद्याधर मनुष्य ये सभी वही जीव बनते हैं जो मिथ्यादृष्टि होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव दान के प्रभाव से देव बनता है। इसलिए यह मत समझना कि जो भी आहार दान करता है वह भोगभूमि में ही जन्म लेता है। केवल पात्र के अनुसार एकान्त रूप से फल नहीं मिलता है किन्तु दाता को अपनी योग्यतानुसार भी फल मिलता है। एक दाता उत्तम पात्र को दान देकर देवों में उत्पन्न होता है तो दूसरा दाता उसी उत्तम पात्र को दान देकर भोगभूमि का या विद्याधर मनुष्य बनता है। इसलिए अनेकान्त दर्शन में एकान्त अभिप्राय धारण नहीं करना। पात्र निमित्त है और दाता की अपनी योग्यता उपादान शक्ति है। निमित्त और उपादान दोनों की यथायोग्य योग्य कार्य होता है। उपादान की योग्यता के अनुसार ही निमित्त फल देते हैं। यदि दाता श्रावक सम्यग्दृष्टि होगा तो देव बनेगा और मिथ्यादृष्टि होगा तो मनुष्य बनेगा। इसी तरह मध्यम पात्र को दान देकर मिथ्यादृष्टि श्रावक मध्यम भोगभूमि और जघन्य पात्र को दान देकर जघन्य भोगभूमि का फल पाता है। कुपात्र को दान देने से कुभोगभूमि मिलती है और अपात्र को दिया गया दान व्यर्थ होता है। संयमासंयम को धारण करने वाले श्रावक मध्यम पात्र हैं। अविरति सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जघन्य पात्र हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के धारक जीव कुपात्र कहलाते हैं। जो स्थूल हिंसा आदि से भी दूर नहीं हैं उन्हें अपात्र कहते हैं।
हे श्रावक! प्रत्येक दान का महत्त्व अपार है। जहाँ औषध दान की आवश्यकता है वहाँ आहार दान का क्या महत्त्व है ? यदि औषध दान का महान् फल नहीं होता तो श्रीकृष्ण औषध दान देकर तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य बन्ध कैसे कर लेते ? इसी तरह उपकरण, शास्त्र और अभय दान के विषय में जानना।
हे श्रावक! तुम्हारे लिए तो आचार्यों ने इन चार दानों को देने के लिए ही कहा है। आज-कल कुछ श्रावक इन दानों को महत्त्वहीन बताकर 'ज्ञानदान' की चर्चा करते हैं। ऐसे श्रावक मुनिधर्म को विनाश करने पर तुले हैं, ऐसा समझना। ज्ञान दान देना, श्रावक का नहीं मुनिराज का दान है। ज्ञानदान आत्मा को दान देना है और आहार आदि दान शरीर को देना है, इस प्रकार के धर्म विरुद्ध, कुतर्क करने वाले, मुनिमार्ग विरोधी श्रावक से सावधान रहो, दूर रहो।
किस साधु के वचन प्रासुक परित्याग है ?