________________
है ।
भावार्थ : रत्नत्रय धर्म का दान साधु का कार्य है । उपदेश से रत्नत्रय धर्म प्रदान करना सभी त्यागों में महान् त्याग है। रत्नत्रय का उपदेश देना ही बड़ा दान है। सभी प्रकार के दान में यह दान सबसे महान् है । इस दान को करने वाले साधु को प्रासुक परित्यागी कहा जाता है । इस प्रकार का दान करने से साधु भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं ।
आचार्य अकलंक देव कहते हैं कि- 'परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्यागः ' अर्थात् पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है । अभयदान देने से उस भव का दुःख छूटता है अतः पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञान दान तो अनेक हजार भवों के दुःखों से छुटकारा दिलाने वाला है। ये तीनों दान विधिपूर्वक दिए गए त्याग कहलाते हैं ।
कौन सा उपदेश प्रासुक परित्याग है
हेयादेयवबोहो जम्मि दयासंजमस्स वक्खाणं । उवदेसो सो भणिओ पासुगपरिच्चागदा णाम ॥ ४ ॥
वह उपदेश ही प्रासुक माना जिसमें जीव दया का ज्ञान संयम पथ पर बढ़ने की रुचि बढ़ता जाए सम्यग् ज्ञान । हेय रहा क्या उपादेय क्या यह विवेक विज्ञान बने भेदज्ञान भी बढ़ता जाए शिवपथ का सम्मान बने ॥४॥
अन्वयार्थ : [ जम्मि ] जिस उपदेश में [ हेयादेयवबोहो ] हेय, उपादेय का ज्ञान हो और [ दयासंजमस्स ] दया, संयम का [ वक्खाणं ] व्याख्यान हो [ सो ] वह [ भणिओ ] कहा हुआ [ उवदेसो ] उपदेश [ पासुग-परिच्चागदा णाम ] प्रासु परित्याग के नाम से है ।
भावार्थ : साधु के उपदेश में जो आवश्यक बातें होनी चाहिए वह इस प्रकार हैं। सबसे पहला हेय, उपादेय का ज्ञान । क्या त्यागने योग्य है, क्या ग्रहण करने योग्य है ? यही हेय, उपादेय का ज्ञान है । अथवा क्या आत्मा के लिए हितकर और क्या अहितकर है ? इस प्रकार का ज्ञान भी हेय, उपादेय का ज्ञान है। साधु के उपदेश से श्रोता को करणीय और अकरणीय कार्यों का भेदज्ञान होना चाहिए। दूसरा आवश्यक तथ्य यह है कि उपदेश में दया और संयम का व्याख्यान हो। श्रोता को दया भावना उत्पन्न होने से संयम भाव उत्पन्न होगा, जो सम्यक् चारित्र की ओर प्रेरित करता है । इस तरह उपदेश से समीचीन ज्ञान होना और समीचीन आचरण होना ही रत्नत्रय का दान है । इस तरह का उपदेश प्रासुक परित्याग नाम पाता है ।
और कैसा उपदेश प्रासुक परित्याग नहीं है ?