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७. पासुग-परिच्चागदा
प्रासुक परित्याग क्या है?
तित्थयर-दिव्ववाणी अणंतसंसार समुद्द-सोसकरी। तित्थयराणं दाणं पासअ परिच्चागदा णाम॥१॥
दान मिला है महाजनों से तीर्थंकर का ज्ञान मिला इस अपार संसार सखाने जिन-वाणी रस पान पिला। दिव्य पुरुष के दिव्य वचन ही दिव्य दान हैं ग्रहण करो परपीड़ा-हिंसा बिनप्रासुक-त्यागवचनका श्रवणकरो॥१॥
अन्वयार्थ : [तित्थयर-दिव्ववाणी ] तीर्थंकरों की दिव्यवाणी [ अणंत-संसार-समुद्द-सोसकरी ] अनन्त संसार समुद्र को सुखाने वाली है [ तित्थयराणं ] तीर्थंकरों का [ दाणं ] दान [ पासुउपरिच्चागदाणाम ] प्रासुक परित्याग नाम से कहा है।
भावार्थ : प्रासुक रत्नत्रय धर्म है। परित्याग का अर्थ प्रदान करना है। तीर्थंकर देव अपनी दिव्यध्वनि से जगत् के लिए रत्नत्रय धर्म का उपदेश देते हैं। यह उपदेश ही प्रासुक परित्याग है। यह परित्याग उनकी दिव्यवाणी के द्वारा होता है। उनके दिव्य उपदेश अनन्त संसार समुद्र को सोख लेते हैं इसलिए मुख्य रूप से प्रासुक परित्याग करने वाले तीर्थंकर प्रभु ही हैं। उन तीर्थंकरों के दिव्यदान को आत्मसात् करने की भावना प्रासुक परित्याग भावना है।
और कौन प्रासुक परित्यागी हो सकता है ?
जो पासुअं हि भुंजदि पासुगमग्गेण चरदि सावेक्खं। तस्साहुस्स य वयणं पासुग-परिच्चागदा णाम॥२॥
जो साधु प्रासुक खाता है जिह्वा वश में रखता है जो प्रासुक पथ पर चलता है दया हृदय में रखता है। उस साधु के वचनामृत ही मोह महा विष शमन करें ज्ञानामृत देने वाला ही प्रासुक त्यागी नमन करें॥२॥
अन्वयार्थ : [जो ] जो साधु [ पासुअं] प्रासुक भोजन [ हि ] ही [ भुंजदि] खाता है [ पासुग-मग्गेण ] प्रासुक मार्ग से [ सावेक्खं] अपेक्षा सहित होकर [ चरदि] चलता है [ तस्साहुस्स ] उस साधु के [ वयणं य] वचन [पासुग-परिच्चागदा णाम] प्रासुक परित्याग नाम से हैं।