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निर्विकल्पता बने । मन की साधना हो और धर्म ध्यान होता रहे। इस पंचम काल में एकान्त वास में रहने वाले साधुओं को खोजना। जो हितकारी उपदेश देकर गृहस्थों को मोक्षमार्ग पर लगाने की करुणा रखते हुए भी अपने मन में आवेग न रखकर संवेग भाव रखते हैं । जिन्हें धर्म कथा में ही आनन्द आता हो और विकथा में अरुचि धारण करते हैं उन साधुओं का सद्भाव आज भी है। आवेग में आकर यह नहीं कहना कि पंचम काल में ऐसे साधु नहीं होते हैं । संवेग भाव धारण कर ज्ञान नेत्रों से देखोगे तो अपरिग्रही, द्वन्द्वफन्द से दूर, अपने आत्म हित की इच्छा करने वाले साधुजनों का दर्शन भी होगा लेकिन निन्दा दृष्टि या छिद्रान्वेषी दृष्टि से सभी में दोष देखने की ही गलती मत करना। थोड़ा गुणवान स्वयं बनो तुम्हें गुणग्रहिता आने लगेगी।
आवेग, उद्वेग और उत्सुकता में इच्छा की तीव्रता का अन्तर है। आवेग से उद्वेग में मन की इच्छा की तीव्रता कम है और उद्वेग से उत्सेक में तीव्रता और कम है। बाहरी कार्यों में उलझने की उत्सुकता से भी संवेग भाव मर जाता है और ध्यान की परिणति नहीं बनती है । इसलिए इन विभावों को छोड़कर संवेग भाव का अभ्यास करो । इसी से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है ।
तप ही सुखद है
जेण तवेण विणस्सदि देहप्पजणिद-विब्भमं महल्लं । सो चेव तवो भणिदो चदुग्गदि - णिवारणे य खमो ॥ ७ ॥
जो अनादि से मोहजनित है भ्रम तन में ही आतम का वो अनादि भ्रम विगलित होवे रूप दिखे परमातम का । वह तप से ही होता देखा चतु गति भ्रमण मिटा देना तपो भावना निरत मनीषी सुख दुख से फिर क्या लेना ? ॥७ ॥
अन्वयार्थ : [ देहप्पजणिद-विब्भमं ] देह और आत्मा से उत्पन्न [ महल्लं ] महान विभ्रम [ जेण तवेण ] जिस तप से [ विणस्सदि ] विनष्ट होता है [ सो ] वह [ चेव ] ही [ तवो ] तप [ भणिदो ] कहा गया है जो [ चदुग्गदिणिवारणे ] चार गति के निवारण में [ य खमो ] समर्थ है।
भावार्थ : वह तप ही महान है जो देह और आत्मा के विभ्रम को दूर कर दे। यह जो अनादिकालीन भ्रम है वह तप से ही दूर होता है। यदि एक बार यह भ्रम दूर हो जाता है तो चारों गतियों का दुःख दूर हो जाएगा। इसलिए आत्मा को सच्चा सुख देने वाला यह तप ही है।
पुन: तप की स्तुति करते हुए कहते हैं
तवस्स कज्जं किल पावहाणी अज्झप्प- कज्जं चिरमोहहाणी | दोन्हं वि जोगेण सहावलद्धी