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तस्सेव तवो भणिदो समदा-सम्मत्त-ववियरो॥६॥
तप करते-करते साधक के भाव विकारी नशते हैं क्रोध, मान, इच्छाएँ तम हैं तप रति लख सब भगते हैं। जैसे-जैसे बढ़ती जाए तपो भावना मुनि मन में तैसे-तैसे बढ़ती जाए निज रुचि-समता आतम में॥६॥
अन्वयार्थ : [जस्स] जिसके [तवाचरणेण] तपश्चरण से [पुणो] पुनः [कोहो] क्रोध [लोहो] लोभ [माणो ] मान [हीयदि] घटता है [ तस्सेव] उसका ही [तवो ] तप [समदा-सम्मत्त-ववियरो] समता और सम्यक्त्व की वृद्धि करने वाला [ भणिदो] कहा गया है।
भावार्थ : समीचीन तप की पहचान यह है कि जैसे-जैसे तप की वृद्धि होती है आत्मा में क्रोध भाव क्षमा में परिणत होता जाता है। परम शान्त दशा का अनुभव होता है। इतना तप करने पर भी मेरे परिणामों में शान्ति न आए तो वह मात्र देह का तपना है, ऐसा विचार कर परम शान्त भावों से क्रोध के समय पर भी वह तत्त्व विचार में लीन रहता है। जब संसार में देह से भी विरक्ति हो जाती है तो लोभ क्या करना। तप करने से इच्छाएं शान्त हो जाती हैं। मात्र आत्म-अनुभूति की भावना तीव्र होती जाती है, ऐसा होने लगे तो वह तप बहुत कर्म की निर्जरा का साक्षात् कारण होता है। अभिमान तो तपस्वी को छूता नहीं है, सम्यक् तप करने से विनयशीलता बढ़ती है। व्यक्ति मृदु होता चला जाता है। ऐसा तप ही समता, सम्यक्त्व को नित प्रतिपल बढ़ाता है।
_अरे तपस्विन् ! तप करना कठिन है किन्तु वह भी तू कर रहा है इससे भी कठिन है मन की लोकैषणा का त्याग करना। तप करने के बाद भी यदि कोई तेरी प्रशंसा न करे, कोई तुम्हारी पूजा विशेष न करे, कोई तेरी पारणा का ध्यान न रखे, कोई दर-दर से तुम्हें देखने न आए, कोई गांव या शहर में विस्मय से न देखे तो भी हे तपस्विन तुम शान्त रहना। मन में खेद-खिन्नता नहीं लाना। अपने मन की इन लौकिक इच्छाओं को जीतना ही सबसे बड़ा तप समझना। विचार करना कि बड़े-बड़े तपस्वी दुर्धर तप करने के बाद भी क्रोध आदि विकारों को न जीत पाए इसलिए वह तप उनके कल्याण का कारण नहीं हुआ। हे भगवन् ! मेरे इस तप के बदले में मेरे चित्त में ऐसे कोई क्रोध, लोभ के विकार उत्पन्न न हों। कितने ही तपस्वी पारणा के समय क्लेश करते हैं। अपने मन का इष्ट आहार, इष्ट रस चाहते हैं। यदि उस रस की मात्रा में थोड़ी कमी रह जाये तो आग-बबूला हो जाते हैं। ऐसे आहार से तो अध:कर्म आदि दोष लगते हैं। यदि ऐसी मनचाही पारणा की इच्छा हो तो उससे अच्छा प्रतिदिन का भिक्षा चर्या से एक बार भोजन कर आना ज्यादा लाभप्रद है। उतना ही तप करो जिससे मन में संक्लेश उत्पन्न न हो। नीतिवाक्यामृत में आचार्य सोमदेवसूरी ने कहा है
'तत्तपः आचरितव्यं येन शरीरमनसी संशयतुलां नारोहतः।'
अर्थात् वह तप ही करना चाहिए जिससे शरीर और मन में संशय की तुला पर आरोहण होने की स्थिति न बन जाय।