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भावार्थ : तप करते हुए यह सावधानी रहे कि वह ख्याति, पूजा, लाभ के लिए न हो। लोग मुझे तपस्वी कहेंगे, मेरा दुनिया में नाम होगा, इत्यादि भावना का नाम ख्याति है। तप करने से लोग मेरा आदर-सम्मान करेंगे, पूजाप्रतिष्ठा बढेगी, ऐसी इच्छा का नाम पूजा भावना है। तप करने से मेरी अमुक इच्छा पूर्ण होगी, ऐसी अभिलाषा से तप करना लाभ भावना है। इन तीनों भावना का त्याग करके सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के साथ तप करना चाहिए। समीचीन तप यही है। ऐसा तप, यदि थोडा भी हो तो वह बहुत फल देने वाला होता है।
हे तपस्विन् ! इस पंचम काल में हीन संहनन होते हुए भी निदान बंध की भावना मत कर। बाह्य तप करने की शक्ति नहीं है तो कोई बात नहीं किन्तु अन्तरंग के राग, द्वेष को जीत ले। अन्तरंग में समता रस का आस्वादन ले। मन की इच्छा की पूर्ति तप के फल से पूरा करना भी अच्छा नहीं है। मन में लोकैषणा की इच्छा न होना भी बहुत बड़ा तप है। आचार्यों ने 'इच्छा निरोधस्तपः' कहा है। अर्थात् इच्छा का रुकना ही तप है। भरत चक्रवर्ती गृहस्थ थे। राज्येच्छा से उन्होंने देव, विद्याधरों को वश में करने के लिए तप किए। उस तप का उद्देश्य कर्म निर्जरा नहीं था। गृहस्थ के कदाचित् यह उचित है किन्तु श्रमण के लिए कदापि नहीं है। आचार्य गुणभद्र देव आत्मानुशासन में कहते हैं कि
न करोतु चिरं घोरं तपः क्लेशासहो भवान्। चित्तसाध्यान् कषायारीन् न जयेद्यत्तदज्ञता॥
अर्थात् यदि आप चिरकाल तक क्लेश सहन करने में असमर्थ होने से घोर तप नहीं कर सकते हो तो कोई बात नहीं , तप मत करो किन्तु चित्त से साधने योग्य कषाय शत्रुओं को नहीं जीतते हो तो यह अज्ञानता है।
जिस तप से आशागर्त को सुखाना था, उसी तप से आशा का गर्त और बढ़ा लेना महा अज्ञान है। यह तप गुण का लाभ नहीं हुआ। मोह का विलास बड़े-बड़े तपस्वियों को भी छलता है। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इच्छा पूर्ति के लिए तप साधना करते हैं, मन्त्रसिद्धि के लिए तप करते हैं, जप करते हैं। खेद है, कि यह तप भी इच्छा पूर्ति का अस्त्र बना लिया जाता है। ऐसे जीवों का संसार बढ़ता ही जाता है। पुराण ग्रन्थों से भी ऐसे कथानक पढ़ने को मिलते हैं जिन्हें पढ़कर आश्चर्य होता है। दीर्घकालीन तपस्या का परिणाम आत्मा के लिए कुछ नहीं अपितु संसार सुख के लिए हो जाता है। हे आत्मन् ! दूसरे की गलती को देखकर अपनी गलती सुधारने वाला महा ज्ञानी है।
देखो ! एक नन्दिषेण नाम के मुनिराज हुए हैं। वैयावृत्य में जो बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। इन मुनि की वैयावृत्य की प्रशंसा आगे वैयावृत्य भावना में पढ़ना। ऐसी दुर्धर तपस्या करने के बाद भी अद्भुत ऋद्धियों के धारक नन्दिषेण मुनि ने भी वही गलती की जिसका वर्णन ऊपर कर रहा था। मुनि ने पैंतीस हजार वर्ष तक तपस्या की। ऐसी विचित्र तपस्या से देवों की सभा में इन्द्र ने भी प्रशंसा की। जब जीवन के अन्तिम छह मास बचे तो प्रायोपगमन संन्यास धारण किया। अहो अन्त-अन्त तक इतना बड़ा संन्यास मरण किया जिसमें वैयावृत्ति न तो क्षपक खुद करता है और न किसी से कराता है। उन मुनि ने निदान कर लिया कि 'मैं अगले जन्म में लक्ष्मीवान् तथा सौभाग्यवान् होऊँ।' इस निदान से मुनि ने अपनी आत्मा को बांध लिया। मरणोपरान्त मुनि महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र तुल्य देव हुआ और फिर मनुष्य भव प्राप्त करके पृथ्वी का अधिपति 'वसुदेव' हुआ। इसलिए तप थोड़ा भी हो लेकिन संसार की इच्छा