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जो पुण्य फल के व्यामोह से विद्याधर मनुष्य, चक्रवर्ती आदि राजाओं के वैभव को देखकर मोहित हो जाता है, तो वह निदान बन्ध कर लेता है। जिसने निदान बन्ध किया, उसने पुण्य के फल को चाहा। ऐसा जीव निरतिचार शील, व्रत को धारण करने वाला नहीं है।
अरे आत्मन् ! इस मोह की परिणति बड़ी विचित्र है। अपने स्वार्थ के लिए यह जीव मोक्षमार्ग पर न चलता है और न कभी-कभी दूसरों को चलने देता है।
भरत चक्रवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर भी मोह के कारण वैराग्यवान् नहीं हुए। क्रोध के कारण अपने भाई बाहुबली पर चक्र चला दिया, बाद में उनके चरणों में नत मस्तक हो गए तो क्या हुआ? क्रोध तो अपने मान भंग होने के कारण आया ही। भगवान् वृषभनाथ के केवलज्ञान होने पर भी भरत को वैराग्य नहीं हुआ। बहिन ब्राह्मी और सुन्दरी ने दीक्षा धारण कर ली तब भी वैराग्य नहीं हुआ। अपने अट्ठानवें भाई एक साथ जब दीक्षित हुए तो । भरत को राज्य सत्ता से ग्लानि उत्पन्न नहीं हुई। भरत स्वयं जानते थे कि हमारे सभी भाई इसीलिए दीक्षित हुए हैं कि वह हमारी अधीनता स्वीकारना नहीं चाहते हैं। ऐसे चक्री बनने से क्या सुख जो अपने भाइयों को ही अपने से अलग कर दे? ऐसा राजपाट का अहंकार भी क्या जो अपने ही भाई को मारने के लिए चक्र छोड़ने के लिए बुद्धिभ्रम उत्पन्न कर दे?
मित्रो ! सब को मालूम है, यह सब हुआ। इतना ही नहीं स्वयं वर्धनकुमार आदि ९२३ पुत्र एक बार में ही भगवान् आदिनाथ के दर्शन करके संयम ग्रहण कर लिए। आत्मा की अन्तरंग परिणति कौन जान सकता है? काल लब्धि की प्रतीक्षा कभी किसी भी भव्यात्मा ने नहीं की। जिस समय पर आत्म उद्धार करने का कार्य घटित हो जावे वही काल लब्धि है।
कुछ लोग ज्ञान बांटते हैं कि जब अर्धपुद्गल परावर्तन संसार रह जाता है तभी सम्यग्दर्शन की योग्यता आती है, इससे पहले कितना भी पुरुषार्थ करो, कोई अर्थ नहीं। व्रत, तप धारण करो, सब व्यर्थ हैं?
बन्धो! यह मिथ्याज्ञान की मिथ्या धारणाएं हैं। किसी भी जीव को कभी भी ज्ञात नहीं हो सकता है कि हमारी काल लब्धि कब आएगी? कब संसार अर्धपुद्गल परिवर्तन रह जाएगा? भोले आत्मन् ! जिनवाणी में कथन सापेक्षिक होता है। जब काल की मुख्यता से कथन करते हैं तो काल को निमित्तकर्ता बना दिया जाता है। यह तभी किया जाता है जब काल लब्धि का कथन किया जा रहा हो। जब जीव के परिणामों का कथन करते हैं तो उसके अन्तरंग परिणामों को कर्ता कहा जाता है। इन दोनों सापेक्षिक कथन में मुख्य तो जीव का परिणाम ही है। पुरुषार्थ जीव करता है। जीव परिणामों के द्वारा ऐसे परिणाम करता है कि अनन्त संसार अर्धपुद्गल मात्र रह जाता है। सिद्धान्त ग्रन्थों में कहा है कि यह जीव अपने अन्त:करण परिणामों से इस अनन्त संसार को अर्धपुद्गल मात्र कर देता है। इसी तरह श्री धवल पस्तक ५ में लिखा है
'अणाइमिच्छादिट्ठिणा तिण्णि करणाणि कादूण पढमसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमये अणंतो संसारो