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इनके त्याग न करने का नाम अतिचार और इनके विनाश का नाम निरतिचार या सम्पूर्णता है। इसके भाव को निरतिचारता कहते हैं। शीलव्रतों में इस निरतिचारता से तीर्थंकर कर्म का बन्ध होता है।
शंका- इसमें शेष पन्द्रह भावनाओं की सम्भावना कैसे हो सकती है?
समाधान- यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण लव प्रतिबुद्धता(अभीक्ष्ण संवेग), साधु समाधि धारण, वैयावृत्य योग युक्तता, प्रासुक परित्याग, अरिहंत भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति और प्रवचन प्रभावना लक्षण शुद्धि से युक्त सम्यग्दर्शन के बिना शील-व्रतों की निरतिचारता बन नहीं सकती। दूसरी बात यह है कि जो असंख्यात गुण श्रेणि से कर्म निर्जरा का कारण है, वही व्रत है। और सम्यग्दर्शन के बिना हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होने मात्र से वह गुण श्रेणी निर्जरा हो नहीं सकती, क्योंकि दोनों से उत्पन्न होने वाले कार्य को उनमें से एक के द्वारा उत्पत्ति का विरोध है।
शंका- इनकी सम्भावना यहाँ भले ही हो, पर ज्ञानविनय की सम्भावना नहीं हो सकती?
समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि छह द्रव्य, नौ पदार्थों के समूह और त्रिभुवन को विषय करने वाले एवं बार-बार उपयोग विषय को प्राप्त होने वाले ज्ञान विनय के बिना शीलव्रतों के कारणभूत सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं बन सकती।
शीलव्रत विषयक निरतिचारता में चारित्रविनय का भी अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यथाशक्ति तप, आवश्यक-अपरिहीनता और प्रवचनवत्सलता लक्षण चारित्रविनय के बिना शील विषयक निरतिचारता की उत्पत्ति ही नहीं बनती है। इस कारण यह तीर्थंकर नाम कर्म के बन्ध का तीसरा कारण है।