________________
४.णाण भावणा
संवर, निर्जरा की इच्छा करने वाला ज्ञानोपयोगी है
जो संवरमादरदि णिज्जरमिच्छदि य मोक्खमग्गम्मि। अप्पाणं रसिगो सो णाणमभिक्खं विजाणादि॥१॥
संवर तत्त्व समादर करता नित्य निर्जरा को चाहे आतम का वह रसिक बना है, आत्म भावना को भाए। जिसको लगन लगी आतम की शिवपथ को जो चाह रहा ज्ञान भावना लीन यती वह ज्ञानामृत रस पाग रहा॥१॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [संवरं] संवर भावना का [आदरदि] आदर करता है [य] और [ मोक्खमग्गम्मि] मोक्षमार्ग में [णिज्जरं] निर्जरा की [इच्छदि] इच्छा करता है [अप्पाणं] आत्मा का [रसिगो] रसिक [सो] वह जीव [ अभिक्खं णाणं] अभीक्ष्ण ज्ञान का [विजणादि] अनुभव करता है।
भावार्थ : हे भव्य ! तुम ऐसे व्रत आदि का आचरण करना जिससे निरन्तर संवर होता रहता है और निर्जरा होती है, जो निरन्तर अपनी आत्मा की शुद्ध अवस्था का इच्छुक है, वह सतत ज्ञान उपयोग में लीन होता है तभी मुख्य रूप से संवर होता है। निश्चय नय से आत्मा का अनुभव होता है। उस आत्म अनुभव से बाहर आने पर भी जो आत्मा को ध्यान रखते हुए संवर, निर्जरा के कारणभूत व्रतों का पालन करता है, वह आत्मा का रसिक अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग को जानता है।
हे आत्मन् ! केवल पढ़ने-लिखने और स्वाध्याय करने से निरन्तर ज्ञानभावना चल रही है, ऐसी भूल मत कर लेना। मात्र शास्त्रों को पढ़ने से अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग नहीं हो सकता है। यदि ऐसा ही होता तो ग्यारह अंग तक का विशाल द्रव्य श्रुत पढ़ने पर भी अभव्य मिथ्यादृष्टि कैसे रहे आते?
जो लोग कहते हैं कि बाह्य क्रिया मात्र से सिद्धि नहीं है केवल स्वाध्याय से ही, पढ़ने-पढ़ाने से ही आत्मसिद्धि होती है, ऐसी धारणा वाले ज्ञानियों को महान् ज्ञानी आचार्य कुन्दकुन्द देव समझाते हुए कहते हैं कि
के वलिजिणपण्णत्तं एयादसअंग सयलसुयणाणं। पढिओ अभव्वसेणो ण भाव सवणत्तणं पत्तं ॥
भा.पा.५२ अर्थात् अभव्यसेन नामके द्रव्यलिंगी मुनि ने केवली भगवान् के द्वारा कहे हुए ग्यारह अंग पढे। इन ग्यारह अंग को पूर्ण श्रुतज्ञान भी कहते हैं। क्योंकि जिसे शास्त्र का इतना बढ़ा-चढ़ा ज्ञान हो जाता है उसे अर्थ की अपेक्षा पूर्णश्रुतज्ञानी कहा जाता है। तो भी वह भाव श्रामण्य को प्राप्त नहीं हआ।