________________
पर कार्यों में उत्कण्ठित जो तीव्रतमा आवेग कहा तीव्रतरी फिर वही लालसा ध्यानी का उद्वेग रहा। मन्द मन्द आकांक्षा रहना उत्सुकता का होना है शान्त ध्यान निर्वेग भाव से मन संवेग सलोना है॥ ७॥
अन्वयार्थ : [ जस्स ] जिस [ साहुस्स ] साधु को [ आवेगो ] आवेग, [ उव्वेगो ] उद्वेग [ उस्सेको ] उत्सेक [ णत्थि ] नहीं है [ आदा ] जो आत्मा [ णिव्वेगपरो] निर्वेग में तत्पर है [ तस्स ] उसका [ संवेगो ] संवेग [णवो ] नया [ होदि ] होता है ।
भावार्थ : किसी कार्य को जिस किसी भी ढंग से करने का भाव आवेग है। किसी कार्य को करने की तीव्र लालसा उद्वेग है। किसी कार्य को करने की उत्सुकता बनी रहना उत्सेक है । जो साधु अभीक्ष्ण संवेग भावना से युक्त होता है, ऐसे शान्त परिणामी साधु को निर्वेग में तत्पर कहा जाता है । संसार, शरीर, भोगों से उदासीन आत्मा निर्वेग में है उसको नया संवेग भाव होता है ।
आगे और भी कहते हैं
संसारभीदो
जिणरूवलीणो
जिणस्स धम्मे हरिसो विसुद्धो । संसारपारीणवित्तचित् णवो णवो सो सुहभावजुत्तो ॥ ८॥
चारों गति से त्रस्त हुआ जो जिन स्वरूप में लीन हुआ श्री जिनवर के कथित धर्म में हर्षित होकर शुद्ध हुआ । जिसका चित्त विमुक्त हुआ है सांसारिक अभिलाषा से नया-नया संवेग भाव वह अनुभव करे शिवाशा से ॥ ८ ॥
अन्वयार्थ : [ संसारभीदो ] संसार से भीत [ जिणरूवलीणो ] जिन रूप में लीन [ जिणस्स ] जिनेन्द्र के [ धम्मे ] धर्म में [ हरिसो ] हर्षित [ विसुद्धो ] विशुद्ध [ संसार - पारीण - विमुत्तचित्तो ] संसार से पार जाने वाला मुक्त चित्त [ सो ] वह जीव [ णवो णवो ] नये-नये [ सुहभावजुत्तो ] शुभ भाव से सहित होता है।
भावार्थ : अभीक्ष्ण संवेगी आत्मा संसार के चार गतियों के दुःख से भयभीत होता है । वह जिनेन्द्र भगवान के बाह्य रूप और अन्तरङ्ग अनन्त चतुष्टय रूप आत्म तत्त्व का ध्यान करता है। वह जिनरूप में लीन रहता है। जिन प्रणीत धर्म में उसे अन्तरङ्ग से हर्ष उत्पन्न होता है जिससे उसका चित्त विशुद्ध होता जाता है। संसार के पार जाने वाला उसक चित्त एक तरह से संसार के बन्धनों से छूटा ही रहता है । इस तरह उस आत्मा में शुभभाव नया-नया उत्पन्न होता रहता है। इन भावनाओं से निरन्तर संवेग की वृद्धि होती है और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है ।