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उस दिन सामायिक, स्वाध्याय में मन न लगना भी आर्तध्यान का लक्षण है।
इसी आर्तध्यान का दूसरा कारण अनिष्ट संयोग है। जिसके साथ रहना है, जिसके साथ-साथ चलना है, वह व्यक्ति यदि अपने लिए इष्ट नहीं लगता है, अच्छा नहीं लगता है तो उससे धीरे-धीरे घृणा उत्पन्न होने लगती है। उससे दूर रहने का भाव होने लगता है। बस! यही मानसिक प्रवृत्ति जो उससे दूर रहने का या उससे बचने का उपाय विचारती रहती है, वह भी आर्तध्यान है।
इसी आर्तध्यान का तीसरा कारण है पीड़ा चिन्तन । जब हमारे शरीर में रोग होता है तो उसी रोग को दूर करने के उपायों को विचारते रहना और पीड़ा के अनुभव से दु:खी बने रहना आर्तध्यान है। जो साधक इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग से मन दुःखी नहीं करता है वही इस पीड़ाचिन्तन जन्य आर्तध्यान से बच सकता है। हे साधक! जब तक शरीर नीरोग है तब तक इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग जन्य आर्तध्यान से दूर रहने के लिए आत्म भावना करो यही भावना इस पीड़ा चिन्तन से दु:खी होने से बचा पाएगी।
इसी आर्तध्यान का चौथा कारण निदान है। यह मत समझना कि यह तो कभी सम्भव नहीं है। दूसरे लोगों की भोग-वैभव की सम्पदा, किसी के रूप-सौन्दर्य की रमणीयता या विलासता की मौज देखकर यदि मन में उसे प्राप्त करने का किञ्चित् भाव भी उत्पन्न होता है तो वह निदान नाम का आर्तध्यान है। इस विलासता से भरी दुनिया में पग-पग इन विचारों से मन को सावधान करना। यदि कभी क्षणिक विचार आया हो तो उसी समय आत्म-गर्दा और आत्म-निन्दा से अपनी आत्मा को शुद्ध करना।
२. मन को रौद्रध्यान से बचाओ- किसी धनी के सैकड़ों ट्रक चल रहे हैं, किसी के कीटनाशक का व्यापार उच्चस्तरीय है. किसी की अनेक मिलों में हजारों लोगों का रोजगार मिल रहा है. किसी की वाहन बनाने या बेचने की कम्पनी है, इत्यादि अनेक व्यक्ति जब आपको अपनी प्रभुता बताएँ तो प्रसन्न होकर यह मत कह देना- बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, नहीं तो हिंसानन्दी रौद्रध्यान हो जाएगा।
मोहवश यह रौद्रध्यान होता है। हे साधक! किसी गृहस्थ से ऐसा मोह मत कर बैठना जिससे रौद्रध्यान हो जावे। मुनि साधक को तो रौद्रध्यान सम्भव ही नहीं है क्योंकि रौद्रध्यान के साथ भीतर से मुनिपना छूट जाता है। यदि कोई गृहस्थ तुम्हारी संस्था को खूब दान दे और ऐसे व्यापार की वृद्धि का आशीष माँगे तो भी तुम डरना, सोचना। यह अनुमोदना मन में धन के मोहवश या श्रेष्ठी भक्त के मोहवश भी नहीं करना।
हे साधो ! तुम उस राजा वसु को याद रखना जिसने मात्र सत्य-असत्य का निर्णय किया था। उसने असत्य बोला। वह असत्य भी हिंसा को बढ़ावा देने वाला था। हिंसानन्दी और मृषानन्दी इस रौद्रध्यान के कारण ही उसे नरक में जाना पड़ा। उसने निर्णय में कहा था कि- यद्यपि नारद ने युक्तियुक्त कहा है फिर भी पर्वत ने जो कहा है वह हमारे गुरु उपाध्याय के द्वारा कहा गया है।
अपने गुरु के नाम पर गुरु पुत्र के लिए मोहवश असत्य बोला था उसका फल उसे महारौरव नरक मिला।