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जीव को [ रोचेदि ] रुचता है [ वा ] या [कदा ] कब [ सुवदं] सुव्रतों को [ गिण्हामि ] ग्रहण करूँ [णिच्चं] हमेशा [ इदं] यह [भावमाणो] भावना करता है।
भावार्थ : जो व्रती वस्तुतः सम्यग्दृष्टि है वह भगवान के द्वारा कहे हुए अणुव्रतों और महाव्रतों को तथा उनके अतिचार आदि को यथावत् स्वीकार करता है। सम्यग्दृष्टि जीव व्रतों के स्वरूप में रुचि करता है। व्रतों को अपना आत्म स्वभाव मानता है और जानता है कि इन्हीं व्रतों से निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। व्रती सम्यग्दृष्टि जीव व्रतों को निर्दोष बनाकर आत्मस्वभाव में स्थित होता है । अथवा जो व्रती नहीं है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव सदैव व्रतों में रुचि रखते हुए यह भावना करता है कि भगवन् ! कब यह भगवान आत्मा व्रतों को ग्रहण करके असंयम को छोड़ेगा? सम्यग्दृष्टि जीव व्रतों को ग्रहण करने के लिए उसी तरह छटपटाता है जैसे कोई अपराधी काराग्रह में बंदी बनाकर रख लेने पर छटपटाता है। पुराणों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि सम्यग्दृष्टि जीव जीवन के अन्त तक व्रतों को अवश् धारण करता है। यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि है तब तो नियम से व्रत ग्रहण करता है, भरत चक्रवर्ती, राम आदि की तरह। यदि उसने पहले नरकादि आयु का बंध कर लिया है तो भी श्रेणिक राजा की तरह अपने सम्बन्धियों को विरक्त होते देखकर उन्हें रोकता नहीं है अपितु आश्चर्य करता है कि भगवन् ! हमें व्रत ग्रहण करने का भाव क्यों नहीं हो रहा है?
अनतिचार व्रत किसके होते हैं, इसका समाधान
जो होदि अप्पमत्तो गिहिदव्वदपालणे सदा जुत्तो। विकहाकसायरहिदो सीलवदे अणइचारो सो॥३॥
ग्रहण किए हैं व्रत आदिक जो उनके पालन में रमता सावधान हो कायादिक से प्राणिदया मन में रखता। लोभादिक को जीत लिया तो विकथा का क्या कारण हो निरतिचार व्रत-शीलादिक को पाल रहा साधारण हो॥३॥
अन्वयार्थ : [जो ] जो [ अप्पमत्तो ] अप्रमत्त [ होदि ] होता है [ गिहिदव्वदपालणे ] गृहीत व्रतों के पालन करने में[सदा] सदैव [जुत्तो] लगा रहता है।[विकहा-कसायरहिदो] विकथा तथा कषायों से रहित होता है [सो] वह [ सीलवदे] शील, व्रतों में [अणइचारो] अतिचार रहित होता है।
भावार्थ : जो व्रती संयम पालन करने में प्रमाद नहीं करता है, जीवरक्षा और व्रत की भावना से सदा अप्रमत्त, सावधान रहता है। जो व्रत ग्रहण किये हैं उनका निर्दोष पालन करने में सदा उपयोग सहित रहता है। अन्य समय में आपसी लोगों से भी विकथा नहीं करता है। स्त्रीकथा, भोजनकथा, चोरकथा, राजकथा ये पाप बन्ध का कारणभूत विकथाएँ हैं। विकथा करने से कषाय की वृद्धि होती है। व्रती केवल अपने व्रत पालन में तत्पर रहे तो उसे विकथा और कषाय करने का समय ही नहीं मिलेगा। उसी व्रती के निर्दोष शील, व्रत होते हैं।