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भक्ति ज्ञान का विनय है।
आगम में उपदिष्ट(कहे) समस्त पदार्थों के श्रद्धान के साथ तीन मूढ़ताओं से रहित होना, आठ मलों को छोड़ना, अरहन्त भक्ति, सिद्ध भक्ति, क्षण लव प्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेग सम्पन्नता को दर्शन विनय कहते हैं।
शीलव्रतों में निरतिचारता, आवश्यकों में अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता और शक्त्यनुसार तप का नाम चारित्र विनय है।
साधुओं के लिए प्रासुक आहार आदि का दान, उनकी समाधि का धारण करना, उनकी वैयावृत्ति में उपयोग लगाना और प्रवचन वत्सलता यह ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों का ही विनय है क्योंकि रत्नत्रय समूह को साधु व प्रवचन की संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण विनय सम्पन्नता एक होकर भी सोलह अवयवों से सहित है। अत: उस एक ही विनय सम्पन्नता से मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को बांधते हैं।
यह विनय क्यों करता है, यह कहते हैं
रयणत्तयं य धम्मो अप्पणो णेव अण्णदव्वस्स। तम्हा स धम्मिगाणां भत्तीए णिच्चमुवजुत्तो॥ ३॥
रत्नत्रय आतम का गुण है, आतम का ही धर्म कहा अन्य द्रव्य में भला कहीं यह पाया जाता कहो ? अहा! धर्म, गुणों को धारण करते वे धार्मिक जन कहलाते उनकी भक्ति में जो लगते वे सम्यक् सुख पा जाते॥३॥
अन्वयार्थ : [अप्पणो] आत्मा का [धम्मो] धर्म [रयणत्तयं य] रत्नत्रय है [तम्हा] इसलिए [स] वह [धम्मिगाणं] धार्मिकों की [ भत्तीए] भक्ति में [ णिच्चं ] हमेशा [ उवजुत्तो ] लगा रहता है।
भावार्थ : जो अपनी आत्मा को जानता है, वह सबकी आत्मा को जानता है। जो अपनी आत्मा का सम्मान करता है, वह सबकी आत्मा का सम्मान करता है। विनय आत्मा का धर्म है, एक विशिष्ट गुण है। रत्नत्रय भी आत्मा का धर्म है। रत्नत्रय आत्मा के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। आत्मा का यह धर्म जिनके पास है वह धार्मिक हैं। उन धार्मिकों की भक्ति में लगना ही, उनकी विनय करना है। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव धार्मिक की भक्ति में सदैव उद्यत रहता है।
कौन विनय के योग्य नहीं होता है, यह कहते हैं
जो पुण दप्पेण जुदो कंखदि विणयं हु मोक्खमग्गिस्स।