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अन्वयार्थ : [णाणं य] ज्ञान [ पुजा य] पूजा [ कुलं य] कुल [जादी ] जाति [ बलं य] बल [इड्ढी य] ऋद्धि,[तवो] तप और [ सरीरं] शरीर [अट्टविहं मदं] इन आठ प्रकार के मद को [जे] जो [छिण्णंति] नष्ट करते हैं [ते] वे [णिम्माणगा] मान रहित जीव [सिवस्स] मोक्ष के [ठाणं] स्थान को [ जंति] प्राप्त होते हैं।
भावार्थ : जितने भी जीव मोक्ष गये हैं वे सभी मान रहित होकर ही मोक्ष गये हैं। ज्ञान, रूप आदि मद को छोड़कर जाति, कुल आदि का मद भी अन्ततः छोड़कर ही मोक्ष होता है। मद तो कषाय की तीव्रता में होता है और मन्दता में होता है। यह भी आत्मध्यान में बाधक है। सार यह है कि जो जितना निर्मद होता जाता है वह उतना ही अधिक पाता जाता है। अहंकार में विवेक रहित बुद्धि हो जाती है जिससे रावण की तरह जीव सही-गलत नहीं सोच पाता है और वही करता है जो कषाय कराती हैं।