________________
और भी सम्यक्त्व की विशुद्धि के हेतु हैं, उन्हें कहते हैं
पत्ताणं व विहारे गामे खेत्ते जिणिंदबिंबाणं । भत्ती शुद्धि करणं सम्मत्तविसोहीए हेदू ॥ ७॥
जो विहार में मिलते जाएं सिद्ध क्षेत्र तीरथ लघुग्राम जिनालयों में सदा विराजे बिम्ब अपूर्व सदा अभिराम । उन सबकी भक्ति से नित ही संस्तुति पूजन वन्दन हो यही विशुद्धि हेतु बने हैं सद्दर्शन के भाव अहो ! ॥ ७ ॥
अन्वयार्थ : [ विहारे ] विहार में [ गामे ] ग्राम में [व] और [ खेत्ते ] क्षेत्र में [ पत्ताणं ] मिलने वाले [ जिणिंदबिंबाणं ] जिनेन्द्र भगवान के बिंबों की [ भत्तीए ] भक्ति से [ शुद्धि करणं ] स्तुति करना [ सम्मत्त-विसोहीए ] सम्यक्त्व की विशुद्धि में [ हेदू] हेतु हैं।
भावार्थ : विहार करते हुए अनेक ग्राम, नगर, क्षेत्रों में पुरातन, नवीन जिनालय मिलते हैं । उन जिनालयों में स्थित जिन बिम्बों का दर्शन अपूर्व होता है। ऐसे अपूर्व चैत्यों की वन्दना करने से अपूर्व विशुद्धि बढ़ती है। आचार्यों ने इन चैत्यों की वन्दना भक्ति का विधान अलग से किया है। चैत्य भक्ति, पंच गुरु भक्ति, शांति भक्ति पढ़कर ऐसे अपूर्व चैत्यों की वन्दना की जाती है । साधूजनों का विहार करना, सर्वत्र भ्रमण करना भी दर्शन विशुद्धि में कारण है । यह कारण इसीलिए है क्योंकि अपूर्व - अपूर्व अद्भुत जिनालयों के दर्शन होते हैं। उनकी भक्ति से स्तुति करना संसार की परम्परा का नाश करती है ।
और भी हेतु कहते हैं
जिणवयणधारणमई पवयणपयासणं जुत्तीए । सुदसिद्धंतसुपठणं सम्मत्तविसोहीए हेदू ॥ ८॥
जिन वचनों को धारण करने की बुद्धि भी हेतु है युक्ति से श्रुत को समझाना भी शुद्धि का सेतु है । श्रुत, सिद्धान्त पठन-पाठन से सम-दर्शन दृढ़ होता है भक्तिभाव से रुचि बढ़ने से मन आतम में खोता है ॥ ८ ॥
अन्वयार्थ : [ जिणवयण धारणमई ] जिनेन्द्र भगवान के वचनों को धारण करने की बुद्धि [ पवयण- पयासणं ] प्रवचन का प्रकाशन [ जुत्तीए ] युक्ति से करना [य] तथा [ सुदसिद्धंतसुपठणं ] श्रुत सिद्धान्त का अच्छी तरह अध्ययन [ सम्मत्त-विसोहीए ] सम्यक्त्व की विशुद्धि के [ हेदू] हेतु हैं।