Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
पतन की ओर धकेलते हैं।"
___ "हे स्वामिन् ! आप अपनी रुचि बदलें। ऐसे व्यक्तियों की संगति छोड़ें। आप स्वयं सुज्ञ हैं । इस आसक्ति को छोड़े और धर्म में मन लगावें । जिस प्रकार चारित्र-रहित साधु, शस्त्र-रहित सेना और नैत्र-रहित मुंह शोभा नहीं पाता, उसी प्रकार धर्म-रहित मनुष्य भी शोभा नहीं पाता। उसकी दुर्गति होती है और वह भवान्तर में महा दुःखी होता है । धर्म, जीव को सुख-शान्ति और समृद्धि देने वाला है । इसलिए आप अधर्म को त्याग कर धर्म का सेवन करें।"
अधर्मियों से विवाद
स्वयंबुद्ध मन्त्री की धर्मसम्मत बात “ संभिन्नमति'' नाम के मन्त्री को नहीं रुचि । वह मिथ्यामति नास्तिक था । स्वयंबुद्ध की बात पूरी होते ही बोल उठा; --
" स्वयंबुद्धजी ! धन्य है आपको और आपकी बुद्धि को। आपने अपने स्वामी का अच्छा हित सोचा। आपके विचार से आपके उदासीन मानस के दर्शन होते हैं । आप से महाराज का सुख नहीं देखा जाता । स्वामी की प्रसन्नता आप को अच्छी नहीं लगती। जो सेवक अपने भोग के लिए स्वामी की सेवा करते हैं, वे स्वामी को कैसे कह सकते हैं कि--'आप भोगों का त्याग कर दें ।'यह तो धृष्टता ही है।"
"जो प्राप्त उत्तम भोगों को त्याग कर अदश्य एवं असत्य भोगों की--परलोक की आशा रखते हैं, वे भूलते हैं। क्योंकि परलोक की मान्यता ही असत्य के आधार पर खड़ी है। किसने देखा है परलोक ? वास्तविक हस्तगत सत्य को छोड़ कर मिथ्या धारणा में भटकना मूर्खता है । वास्तव में यह शरीर ही सब कुछ है। शरीर के अतिरिक्त ऐसी कोई आत्मा नहीं है, जो परलोक में सुख और दुःख भोगने के लिए जाता हो । जिस प्रकार गुड़ जल और अन्य अनेक पदार्थों के योग से मद-शक्ति वाली मदिरा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार पृथ्वी, अप्, तेज और वायु से चेतना शक्ति उत्पन्न होती है । वास्तव में शरीर से भिन्न कोई शरीरधारी--आत्मा नहीं है, जो शरीर छोड़ कर परलोक में जाता हो । शरीर के नाश के साथ ही सब कुछ नष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्राप्त सुखोपभोग को छोड़ कर उदासीन जिन्दगी बिताना, केवल मूर्खता ही है। धर्म-अधर्म के विचार मन में लाना ही भूल है । मात्र भ्रम है । इस प्रकार के भ्रम से प्राप्त सुखोपभोग से वंचित रहने से जीवन रूखा हो जाता है । इस प्रकार के अज्ञान से काम-भोगमय सुखी
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