Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
अवधिज्ञानका बहिरंग कारण वह भव है वह ज्ञान भवप्रयय अवधि कहा जाता है। जीवकी पर्यायें अन्तरंग कारण ही होय ऐसा कोई नियम नहीं है । अत्यन्तपरोक्ष आकाश और कालद्रव्य के परिणाम बहुतसे कार्यों में बहिरंगनिमित्त बन रहे हैं। पांच सेर दहीका उपादान पांच सेर दूध है । उसमें तोला भर डाला गया दही जामन तो निमित्तमात्र है। यानी बहिरंग कारण है । अन्तरंग कारण या उपादान कारण नहीं है। स्वयं जीवके क्रोधपर्यायकी उत्पत्ति करनेमें क्रोध नामका पौगलिक कर्म तो अन्तरंग कारण है, और जीवकी पूर्ववर्ती क्रोधपर्याय या चारित्रगुणकी अन्य कोई विभावर्याय बहिरंगकारण है । चारित्र गुण उपादानकारण है। तथा जीवके सम्यक्त्वगुण उपजने में न्यारे चारित्रगुणकी परिणति हो रही करणलब्धि तो अन्तरंग कारण है । और क्षयोपशमलब्धि या उपादानखा हो रही पूर्वसमयकी मिथ्यात्वपरिणति बहिरंग कारण है । लम्बे चौडे वट वृक्ष, आम वृक्ष आदिकी उत्पत्तिके उपादानकारण खेत, मिट्टी, जल, आतप, वायु, आदिक हैं | और वटबीज या आमकी गुठिली निमित्तकारण है । चना, उर्द, गुठिली आदि बीजों में दो पल्लोंके भीतर जो तिल या पोस्त बराबर पदार्थ छिपा हुआ है वह केवल आदिके स्वल्प अंकुरका उपादानकारण माना जाय । खाये पीये हुये दूध, अन्न, जल, वायु आदिमें प्रविष्ट हो रहीं या अतिरिक्त स्थलोंसे भी आई हुयीं आहारवर्गणायें तो बालकके बढे हुये मोटे शरीर की उपादानकारण हैं । और मातापिताके रजोवीर्य निमित्तकारण हैं । धौले या पीछे प्रकाशके उपादानकारण तो गृहमें भरे हुये पुद्गल हैं । दीपक या सूर्यके निमित्तसे वे ही चमकदार परिणत हो गये हैं। जैसे कि जीवके रागद्वेष आदिको निमित्त पाकर कार्मणत्रर्गणायें ज्ञानावरण आदि कर्म बन जाती हैं। जो कार्य रूप परिणमता है, वह उपादानकारण है । आम्रबीजको निमित्त पाकर इधर उधर के जक मृत्तिका आदिक पुद्गल ही डालीं, छाल, वौर, आम गुठिली आदि अवस्थाओंको धार लेते हैं । वे ही मिट्टी आदिक यदि अमरूद बीजका निमित्त पाते हैं, तो अमरूद के वृक्षके उपादानकारण बन जाते हैं । सकोरामें थोडी मिट्टी और बीज अधिक डालकर बोदेनेसे कुछ कालमें सभी मिट्टी अंकुररूप परिणमजाती है । समीचीन मित्रकी शिक्षा के अनुसार प्रशंसनीय कार्योंको करनेवाले धनिक पुरुषकी प्रवृत्तिका अन्तरंग कारण तो सच्चा मित्र है, जो कि सर्वथा to है । और धनिककी मोंडी बुद्धि तो उस प्रवृत्तिका बहिरंग कारण है। यह कार्यकारणका विषय गंभीर है । स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार ही हृदयंगत होता है । प्रकरण में देवनारकियोंके अवधिज्ञानका बहिरंग कारण उनका भव है, ऐसा समझो ।
रंग देवगति नामकर्मणो देवायुषश्चदिया देवभवः । तथा नरकगतिनामकर्मणो नरकायुषश्चोदयान्नरकभव इति । तस्य बहिरंगतात्मपर्यायत्वेऽपि न विरुद्धा ।
देखिये, गति नामक पिण्डनकृतिके भेद हो रहे देवगति नामक नामकर्म और आयुष्यकर्म के भेद हो रहे देवायुकर्म इन बहिरंग कारणोंके उदयसे आत्माकी देवभव परिणति होती है, तथा