Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ स्वार्थ लोकवार्तिके भवप्रत्यय इत्यादिसूत्रमाहावधेर्बहिः । कारणं कथयन्नेकं स्वामिभेदव्यपेक्षया ॥ १ ॥ विज्ञान के देव और नारकी इन दो अधिपतियोंके मेदोंकी विशेष अपेक्षा नहीं करके अवधिज्ञानके केवल बहिरंग एक कारणका कथन करते हुए श्री उमास्वामी महाराज " भवप्रत्ययो - वधिर्देवनारकाणां " इस सूत्र को कह रहे हैं । अर्थात् भिन्न दो स्वामियोंके सामान्यरूपसे एक बहिरंग कारण द्वारा हुये अवधिज्ञानका प्रतिपादक यह सूत्र है । अथवा देव और नारकी इन दो स्वामियों के भेदक विशेष अपेक्षा करके भी बहिरंग कारण एक भव मात्र हो जानेसे मवप्रत्यय अवधिज्ञानको स्वामीजी कह रहे हैं । देवनारकाणां भवभेदात्कथं भवस्तदवधेरेकं कारणमिति न चोद्यं भवसामान्यस्यैकत्वाविरोधात् । कोई कटाक्ष करता है कि देवोंकी उत्पत्ति, स्थिति, सुख भोगना आदि भवकी प्रक्रिया भिन्न है, और नारकियों की उत्पत्ति, दुःख भोगना, नरक आयुका उदय आदि भत्रकी पद्धति न्यारी है । जब कि देव और नारकियोंके भवोंमें भेद हो रहा है तो सूत्रकार महाराजने उन दोनोंके अवधिज्ञानका एक कारण भला भव ही कैसे कह दिया है ? बताओ | अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार आक्षेपपूर्ण प्रश्न उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्यरूपसे भवके एकपनका कोई विरोध नहीं है | महारानी और पिसनहारीके पुत्र प्रसव होनेपर सुत उत्पत्ति एकसी है । वीतराग बिद्वानों की दृष्टि देवोंका जन्म और नारकियोंका जन्म एकसा है । गमन सामान्यकी अपेक्षासे ऊंटकी गति और हाथी की गति में कोई अन्तर नहीं है । अतः देव और नारकियोंकी मध्यम देशावधिका बहिरंग कारण तिस अवधियोग्य शरीर आदिसे युक्त जन्म लेनारूप भव है । कथं बहिरंगकारणं भवस्तस्यात्मपर्यायत्वादिति चेत् । पुनः किसीका प्रश्न है कि भव भला अवधिज्ञानका बहिरंग कारण कैसे हो सकता है ? क्योंकि वह भत्र तो जीवद्रव्यकी अन्तरंग पर्याय है । जीवके भवविपाकी आयुष्यकर्मका उदय होनेपर जीवको उपादान कारण मानकर जीवकी भवपर्याय होती है । अतः भव तो अन्तरंग कारण होना चाहिये । इस प्रकार आशंका करनेपर तो यों समाधान करना कि नामायुरुदयापेक्षो नुः पर्यायो भवः स्मृतः । स बहिः प्रत्ययो यस्य स भवप्रत्ययोऽवधिः ॥ २ ॥ गति नामक नामकर्म और आयु कर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवाली जीवकी पर्याय भव की गयी है । यह भवका लक्षण पूर्व आचार्योंकी माम्नायसे स्मरण हुआ चला आरहा है। जिस

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 598