Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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( १८ ) वाचकवर्य का समय निर्धारण करने हेतु जैनधर्म की दोनों परम्परामों में प्रयास हुए हैं। पं. सुखलालजी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में अन्य दार्शनिक ग्रन्थों की तुलना के आधार पर इनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी के बाद और विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के पूर्व तक का सूचित किया है। प्रो. श्री हीरालाल कापड़िया भी इस समय को निःशंक स्वीकार करते हैं। प्रो. श्री नगीन भाई ईसा की प्रथम शताब्दी से तृतीय शताब्दी की समयावधि में होने की बात करते हैं।
इतिहासविद् प्रो. मधुसूदन ढांकी के मतानुसार सिद्धसेन दिवाकर सूरीश्वरजी म.सा. की द्वात्रिंशिका में तत्त्वार्थाधिगम सूत्र का उपयोग होने से श्री उमास्वाति म.सा. का समय विक्रम की तृतीय से चतुर्थ शताब्दी के मध्य का निर्धारित कर सकते हैं।
प्रतः इतना निश्चित कह सकते हैं कि वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के पूर्व हुए हैं।
श्री उमास्वातिजी म. सा. की योग्यता-श्री उमास्वातिजी म. सा. ने यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में रचा है। जैन इतिहास कहता है कि जैनाचार्यों में श्री उमास्वातिजी म. सा. ही संस्कृत भाषा के प्रथम लेखक हैं। उनके ग्रन्थों की प्रसन्न, संक्षिप्त और शुद्ध शैली संस्कृत भाषा पर उनके प्रभुत्व की साक्षी है। जैनागम में प्रसिद्ध ज्ञान-ज्ञेयचारित्र-भूगोल-खगोल आदि विविध बातों को संक्षेप में जो संग्रह उन्होंने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में किया है, वह उनके वाचक वंश में होने का और वाचक पद की यथार्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इनकी प्रसिद्धि पांच सौ (५००) ग्रन्थों के रचयिता के रूप में है और साम्प्रत काल में इनकी कृति रूप कुछ ग्रन्थ प्रसिद्ध भी हैं, प्रार्हत् श्रुत के सभी पदार्थों का संग्रह तत्त्वार्थ सूत्र में किया है, एक भी बात बिना कथन किये नहीं छोड़ी इसी कारण कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. भी संग्रहकार के रूप में श्री उमास्वाति म. सा. का स्थान सर्वोत्कृष्ट प्राँकते हैं।
श्री उमास्वातिजी म. सा. की परम्परा-दिगम्बर सम्प्रदाय श्री उमास्वातिजी म. सा. को अपनी परम्परा का मानकर केवल तत्त्वार्थसूत्र को ही इनकी रचना स्वीकार करता है। जबकि श्वेताम्बर इन्हें अपनी परम्परा का मानते हैं और तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त भाष्य को भी इनकी कृति स्वीकार करते हैं। इस विषय में विद्वानों में तीव्र