Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः
[ ५३ ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा से अविवेकी साधक किसी भी समय अपने सिद्धान्तों से स्खलित हो सकता है। इसलिए अन्यदृष्टि प्रशंसा, स्तवना अतिचार रूप है। तथा विवेकपूर्वक गुणदोषों को समझने वाले साधक के लिए वह एकान्त रूप से हानिकारक नही है । ये पाँचों अतिचार श्रावक और साधु के लिए सामान्य रूप से हैं ।। ७-१८ ।।
* द्वादशवतेषु प्रत्येकव्रतस्य अतिचाराणां संख्या * ॐ मूलसूत्रम्व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। ७-१६
* सुबोधिका टीका * अहिंसादि पञ्चसु व्रतेषु दिग्व्रतेषु सप्त-सुशीलेषु पञ्चातिचाराः भवन्ति । यथाक्रममिति ऊध्वं यद् वक्ष्यामः ।। ७-१६ ।।
* सूत्रार्थ-अहिंसादि पाँच अणुव्रत तथा दिग्वतादि सात शीलव्रतों के भी इसी प्रकार पाँच-पाँच प्रतिचार हैं। अर्थात्-व्रत (अहिंसादि पाँच) शील (दिगादिक सातों) में यथाक्रम पाँच-पाँच प्रतिचार होते हैं ।। ७-१६
ॐ विवेचनामृत ॥ जो नियम श्रद्धा और समझपूर्वक ग्रहण किए जाते हैं, उन्हीं को व्रत कहते हैं। व्रत शब्द से ही श्रावक के बारह व्रतों का समावेश हो जाता है, तो भी प्रस्तुत सूत्र में व्रत तथा शील दो शब्दों का प्रयोग किया गया है। जिसका कारण यह है कि, चारित्र धर्म के मुख्य रूप में नियम अहिंसादि पांच व्रत हैं। ये व्रत कहलाते हैं। तथा इनकी पुष्टि के लिए शेष दिगादि सात व्रत हैं, उन्हें शील कहते हैं, ये संज्ञा के सूचक हैं। इनके पांच-पांच अतिचार कहे गए हैं। ये मध्यम दृष्टि से सापेक्ष हैं। उनका जघन्योत्कृष्ट रूप से वर्णन किया जाए तो उसकी व्याख्या न्यूनाधिक संख्या रूप भी बता सकते हैं।
राग-द्वेष रूप विकृति-विकार के अभाव तथा समभाव-सदभाव के आविर्भाव को चारित्र कहते हैं। चारित्र का मूलस्वरूप सिद्ध करने के लिए अहिंसादिक जो-जो नियम व्यावहारिक जीवन. देश, काल इत्यादि परिस्थितियों में मनुष्य बुद्धि के संस्कारानुसार न्यूनाधिक रूप होने से चारित्रस्वरूप एक होने पर भी उसके नियम का तारतम्यभाव अनिवार्य है। इसलिए श्रावक के भी अनेक भेद होते हैं, तो भी शास्त्रकार महर्षि तेरह विभागों की कल्पना करते हुए उनके अतिचारों का कथन करते हैं।
पांच अणुव्रत तथा सात शील (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) में प्रत्येक के पांच-पांच अतिचार क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं ।। ७-१६ ॥