Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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प्रकृति के कारणभूत हैं। अर्थात-कर्मों के ज्ञानावरणीयादि जो सार्थक नाम हैं, वे उसके कारण हैं। कर्मों के नाम उनके फल देने के स्वभाव प्रमाणे हैं। बन्ध के समय में ही कर्मप्रदेशों में स्वभाव निश्चित हो जाता है, तथा तद्अनुसार उसका (कर्म प्रदेशों का) नाम पड़ता है।
जिन कर्मप्रदेशों में ज्ञान गुण को आवरने का स्वभाव निश्चित होता है, उन कर्मप्रदेशों का ज्ञानावरण ऐसा नाम निश्चित हो जाता है। जिन कर्मप्रदेशों में दर्शनगुण को पावरने का स्वभाव निश्चित होता है, उन कर्मप्रदेशों का दर्शनावरण ऐसा नाम निश्चित होता है। आम प्रदेशों में स्वभाव तथा स्वभाव प्रमाणे नाम निश्चित होता है ।
प्रदेशों के बिना स्वभाव के नाम निश्चित नहीं हो सकते हैं। इसलिए प्रदेश नाम के या स्वभाव के (प्रकृति के) कारण हैं। यह उत्तर इस सूत्र में रहे हुए 'नामप्रत्ययाः' शब्द से मिलता है। ग्राम अर्थात्-उस-उस कर्म के सार्थक नाम या स्वभाव उसके प्रत्यय कारण हैं ।
[स्वभाव प्रमाणे हो कर्मों के नाम हैं या नाम प्रमाणे कर्मों के स्वभाव हैं। इससे नाम का अर्थ स्वभाव भी हो सकता है ।] (२) प्रश्न–वे स्कन्ध ऊँची-नीची तथा तिरछी दिशाओं में रहे हुए ऊँची-नीची तथा
तिरछी दिशा के प्रात्मप्रदेशों से ग्रहण होते हैं ? अर्थात्-जीव प्रदेशों को (कर्मपुद्गलों को) समस्त दिशाओं में से ग्रहण करते हैं अथवा किसी एक दिशा
में से ग्रहण करते हैं ?
उत्तर-जीव-प्रात्मा चार दिशा, चार विदिशा, ऊर्ध्व दिशा और अघोदिशा इन दसों दिशाओं से कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है। यह तथ्य इस सूत्र में रहे हुए 'सर्वतः' शब्द से जात होता है। (३) प्रश्न-समस्त जीवों के कर्म का बन्ध समान रूप है या असमान रूप है ? अर्थात्
भिन्न-भिन्न जीव प्रत्येक समय में समान कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करते हैं कि, अधिक-न्यून भी कर्मपुद्गल ग्रहण करते हैं ? अथवा समस्त जीव एक समान
पुद्गल ग्रहण करते हैं कि न्यूनाधिक कर्मपुद्गल ग्रहण करते हैं ? उत्तर-समस्त संसारी जीवों के कर्मबन्ध एक समान नहीं होता है। इसका कारण यह है कि उनके मानसिक, वाचिक तथा कायिक योग व्यापार एक समान नहीं होते हैं। योगों की तरतमता के अनुसार कर्मबन्ध प्रदेशों में तारतम्यभाव रहता है।
स्पष्टीकरण-कोई एक जीव-आत्मा भी प्रत्येक समय में समान पुद्गल ग्रहण नहीं करता है, किन्तु न्यूनाधिक पुद्गल ग्रहण करता है। क्योंकि प्रदेशबन्ध योग से अर्थात् वीर्य व्यापार से होता है। जोव-प्रात्मा का योग-वीर्य व्यापार प्रत्येक समय में एक सरीखा नहीं होता है, न्यूनाधिक होता है।
योगों की अधिकता से अधिक पुद्गलों का ग्रहण होता है और योगों की न्यूनता से कम पुद्गलों का ग्रहण होता है। यद्यपि किसी समय एक समान योग भी होता है, परन्तु वह अधिक में अधिक आठ समय पर्यन्त ही रहता है। बाद में अवश्य योग में फेरफार होता है। इससे जीव