Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 265
________________ ( ११५ ) भवेऽस्मिन् सकलं स्थानं, पदं चापि वरेतरम् । भुक्त्वोज्झितं हि जीवेन, भुञ्जमानं भुज्यते पुनः ॥ ४६ ॥ * अर्थ-इस संसार में जीव ने सब स्थानों एवं अच्छे-बुरे सब पदों को भोगकर छोड़ दिया है। वह बार-बार भोगे हुए भोगों को ही बार-बार भोगता रहता है ।। ४६ ॥ सुखिनः सन्तु जीवास्ते, संसारे येऽपि संगताः । क्षामये सततं भक्त्या , समताभाव - संधितः ॥ ४७ ॥ * अर्थ-संसार में वे ही जीव सुखी रहते हैं जो समता भाव में रमण करते हुए निरन्तर भक्तिपूर्वक क्षमापना करते हैं ।। ४७ ।। हे जिनेश्वर ! हे ज्ञानिन् ! , वीतराग ! जगत्प्रभो! । बोधिरत्नं यथालभ्यं, क्रिया मे स्यात् यथा - तथा ॥ ४८ ॥ * अर्थ-हे जिनेश्वर ! हे ज्ञानी ! हे वीतराग ! हे जगत् के स्वामी ! मेरी क्रिया जैसी-कैसी भी है। परन्तु मुझे यथायोग्य ज्ञानरत्न प्रदान कीजिए ।। ४८ ॥ अर्हतां शरणं दिव्यं, सिद्धानां शरणं परम् । साधूनां शरणं पुण्यं, नित्यं प्रोत्या समाश्रये ॥ ४६ ॥ * अर्थ-अर्हतों की शरण दिव्य है, सिद्धों की शरण परम वरेण्य है, साधुनों को शरण पुण्यदायिनो है। अतः इन शरणों को प्रेमपूर्वक अपनाना चाहिए ।। ४६ ॥ ....--- धर्माणां शरणं सत्यं, नित्यं सत्यार्थदर्शकाः । केवली - भाषितत्त्वाच्च, श्रद्धेयास्ते पुनःपुनः ॥ ५० ॥ * अर्थ-धर्म की शरण नित्य सत्य एवं सन्मार्ग की दर्शिका होती है। केवलज्ञानियों द्वारा भाषित इन शरणों में पुनःपुनः श्रद्धा रखनी चाहिए ।। ५० ॥

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